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________________ १६२ महाबंधे टिदिबंधाहियारे असंखेज्जगु० । पंचसंठा-पंचसंघ-अप्पसत्थ०-दृभग-दुस्सर-अणादे० प्राणदभंगो । वज्जरि०-जस सिया बं० संखेज्जगु० । सेसं पम्माए भंगो। वरि जसगित्ति. असंखेज्जगु० । ३४७. भवसिद्धिया० अोघं । अब्भवसिद्धिया० मदिभंगो । सम्मादि-खइगसम्मादि० अोधिभंगो । वेदगसम्मादि० पम्मभंगो । णवरि मिच्छ पगदीओ वज्ज । सासणे सत्तएणं कम्माणं णिरयोघं । णवरि मिच्छत्त-णसग० वज्ज । तिरिक्खगदि० जहिबं० पंचिदि--ओरालि --तेजा०--क०-समचदु०--ओरालि अंगो०वज्जरि --वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ--णिमि० वि० बं० । तं तु० । उज्जो सिया० । तं तु० । एवं तिरिक्खाणु०-उज्जो । ३४८. मणुसगदि० ज०ढि०० तिरिक्खगदिभंगो । णवरि [मिच्छत्त-णवु जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका वन्धक होता है। पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इनका भङ्ग आनत कल्पके समान है। वज्रर्षभनाराच संहनन और यश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पद्मलेश्याके समान है। इतनी विशेषता है कि यश कीर्तिकी असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। ३४७. भव्य जीवोंका भङ्ग अोधके समान है। अभव्य जीवोंका भङ्ग मत्यज्ञानियोंके समान है। सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। वेदक सम्यग्दृष्टि जीवोंका भङ्ग पद्मलेश्यावाले जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व सम्बन्धी प्रकृतियोंको छोड़कर कहना चाहिए। सासादन सम्यक्त्वमें सात कर्मोका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसक वेदको छोड़कर कहना चाहिए। तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानु पूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, बस चतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि आजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३४८. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसकवेदको छोड़कर कहना चाहिए । देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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