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________________ जहण्णसत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा १६३ स०] वज्ज । देवगदि० ज०हिबं० पसत्थट्ठावीसं णिय० । तं तु० । ३४६. पंचिंदि० ज०वि०बं० तेजा-क०-समचदु०-वएण०४-अगु०४-पसत्थतस०४-थिरादिछ०-णिमि० णि० बं० । तं तु० । तिएिणगदि-दोसरीर-दोअंगो०वज्जरि०-तिरिणाणु०-उज्जो० सिया० । तं तु । एवं तेजा०-क-समचदु०वरण ४--अगु०४--पसत्थवि०--तस०४-थिरादिछ--णिमिणं । एवं ओरालि०ओरालि०अंगो०-वज्जरि० । णवरि दोगदि-दोआणु०-उज्जो सिया० । तं तु । सेसं पसत्य [प-]गदीश्रो णि बं० । तं तु० । चदुसंठा०--चदुसंघ०--अप्पसत्थ०भग-दुस्सर-अणादे मणजोगिभंगो। वरि थिराथिर-सुभासुभ-जस०-अजस० है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। ३४९. पञ्चेन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। तीन गति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, तीन प्रानुपूर्वी और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और वज्रर्षभनाराचसंहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि दो गति, दो आनुपूर्वी और उद्योत इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य.एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। शेष प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे वन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इनका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि स्थिर-अस्थिर, शुभ अशुभ और यश कीर्ति-अयश-कीर्ति इन तीन युगलोंका कदाचित् बन्धक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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