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________________ १६४ महाबंधे टिदिबंधाहियारे तिगिण वि सिया० संखेज्जदिभा० । ३५०. सम्मामिच्छ० वेदगभंगो । मिच्छादिही० मदिभंगो । सएिण. मणुसभंगो । असएिण. तिरिक्वोघं । आहार० ओघं । अणाहार० कम्मइगभंगो। ३५१. जहएणपरत्थाण-सएिणयासो दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० आभिणिबोलणाणावरणीयस्स जहएणयं हिदिं बंधतो चदुणाणा०-चदुदंसणासादा०-जस०-उच्चा-पंचंतरा० णिय बं० । णिय. जहएणा० । एवमेदाओ एकमेकस्स । तं तु० जहएणा । ३५२. णिद्दाणिदाए ज०हि०७० . पंचणा०-चदुदंसणा-सादा०-चदुसंज०पुरिस०-जस०-पंचंतरा०णि बं० । णि अजह० असंखेज्जगु०। चदुदंस-मिच्छ०बारसक०-हस्स-रदि-भय-दुगु-पंचिंदि--ओरालि०-तेजा-क०-समचदु०-ओरालि. अंगो०-वज्जरि०-वएण०४--अगु०४--पसत्थ०--तस०४--थिरादिपंच-णिमि० णिबं० । तं तु.। दोगदि-दोआणु०-उज्जो०-णीचा. सिया० । तं तु०। उच्चा० सिया. होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। ३५०. सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका भङ्ग वेदकसम्यग्दृष्टियोंके समान है और मिथ्यादृष्टि जीवोंका भङ्ग मत्यशानी जीवोंके समान है। संशी जीवोंका भङ्ग मनुष्योंके समान है और असंही जीवोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। आहारक जीवोंका भङ्ग ओघके समान है। तथा अनाहारक जीवोंका भङ्ग कार्मणकाययोगी जीवोंके समान है। इस प्रकार जघन्य स्वस्थानसन्निकर्ष समाप्त हुआ। ३५१. जघन्य परस्थानसन्निकर्ष दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघसे आभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यश कीर्ति, उञ्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु वह जघन्य स्थितिका ही बन्धक ३५२. निद्रानिद्राकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार सञ्ज्वलन, पुरुषवेद, यश-कीर्ति और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। चार दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मरण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। कि जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। दो गति, दो आनुपूर्वी, उद्योत और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि वन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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