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________________ जहण परत्थाणबंध सरिणयासपरूवणा 0 असंखेज्जगु० । एवं णिद्दाणिद्दाए भंगो चदुदंस०-मिच्छ० - बारसक ० -हस्स-रदि-भयदुगु ० --तिरिक्खगदि -- मणुसगदि - पंचिंदि० ओरालि० तेजा० क० - समचदु० - ओरालि ० अंगो० - वज्जरि०-वरण ०४ - दोआणु० - अगु०४ -- उज्जो ० - पसत्थवि० -तस०४-थिरादिपंचसिमि० णीचागोद त्ति । १६५ ३५३. असादा० ज० हि० बंधतो खवगपगदीओ णिहाणिद्दाए भंगो । पंचदंसणा ० - मिच्छ० - बारसक०-भय- दुगु० --पंचिंदि० ओरालि ० - तेजा०--क०-२ [०--क० -- समचदु०ओरालि० अंगो० - वज्जरि० - वरण ०४ - अगु०४- पसत्थ० -तस०४- सुभग-सुस्सर-आदे०णिमि० रिण ० वं ० संखेज्जभाग० । हम्स-रदि-तिरिक्खग दि-मणुसगदि-दोत्राणु० -उज्जो०थिर- सुभ-णीचा० सिया० असंखेज्जभाग० । अरदि- सोग - अथिर- असुभ अजस० सिया० । तं तु ० । जस० - उच्चा० सिया० असंखेज्जगु० । एवं अरदि -- सोग--अथिरअसुभ जस० । अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । उच्चगोत्रका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार निद्रानिद्राके समान चार दर्शनावरस, मिध्यात्व, बारह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, स्थिर आदि पाँच, निर्माण और नीचगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३५३. साता वेदनीयकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग निद्रानिद्रा के समान है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रदेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । हास्य, रति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, दो श्रनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, शुभ और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । श्ररति, शोक, स्थिर, शुभ और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्ति और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् बन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और यशःकीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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