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________________ महाबंधे ट्ठिदिबंघाहियारे ३५४. कोधसंज० ज०हि०० पंचणा-चदुदंसणा-सादावे-तिरिणसंज०जस०-उच्चा०-पंचंत० णिय बं० संखेजगु० । एवं तिएिणसंज-पुरिस० । णवरि माणे दोसंजलणं मायाए लोभसंज० पुरिस० चदुसंजलण त्ति भाणिदव्वं । लोभे पत्थि संजल-पुरिस० । ३५५. इथि० ज०हि०० खवगपगदीओ पिदाणिदाए भंगो। पंचदंस० मिच्छ०-चारसक० --भय--दुगु--पंचिंदि०-अोरालि-तेजा.--क०--ओरालि अंगो०वरण-४ अगु०-४ पसत्थ०-तस०-४ सुभग-सुस्सर-श्रादें--णिमि० णि• बं. असंखेजभाग० । सादा-जस०-उच्चा० सिया० असंखेंजगु० । असादा-अरदि-सोगतिरिक्व०-मणुसग०-तिरिणसंठा-तिएिणसंघ०-दोबाणु-उज्जो०-थिराथिर-सुभासुभअजस०-णीचा -सिया० असंखेज्जभाग० । एवं एबुंसः । गवरि पंचसंठा-पंचसंघ-णिरयाणु० जाहि०० पंचणा-चदुदंसणाo-चदुसंज--पंचंतपि. बं. असंखेजगु० । पंचदंसणा-असादा-मिच्छ०-बारसक०-गलैस०-अरदि-सोग-भयदुगु-चदुबीसणामपगदीओ--णीचा णि बं० संखेजगु० । णिरयग०-वेउव्वि० ३५४. क्रोध संज्वलनकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, तीन संज्वलन, यश-कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणो अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तीन संज्वलन और पुरुषवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मानमें दो संज्वलन, मायामें लोभ संज्वलन और पुरुषवेदमें चार संज्वलन कहना चाहिए । लोभमें संज्वलन और पुरुषवेदका सन्निकर्ष नहीं होता। ३५५. स्त्रीवेदको जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके क्षपक प्रकृतियों का भङ्ग निद्रानिद्राके समान है । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, बारह कषाय,भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसचंतुष्क,सुभग, सुस्वर, प्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, यश कीर्ति और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। असातावेदनीय, अरति, शोक, तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, तीन संस्थान, तीन संहनन, दो पानपर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ अयशाकीर्ति और नीच गोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नपुंसक वेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पाँच संस्थान, पाँच संहनन और नरकगत्यानुपूर्वीकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच शानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। पाँच दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, बारह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, चौबीस नामकर्मकी प्रकृतियाँ और नीचगोत्र इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका वन्धक होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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