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________________ १६१ जहण्णसत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा जगु० । सोग० णि. वं० । तं तु० । एवं सोग । ३४४. तिरिक्खगदि-एइंदि०-पंचसंठा-पंचसंघ०-तिरिक्रवाणु०-आदाउज्जो०अप्पसत्थ०-थावर-दूभग-दुस्सर-अणादे० सोधम्ममंगो। मणुसगदि० ज०हिबं० पंचिंदि०--तेजा-क०-समचदु०--वएण०४-अगु०४--पसत्थवि०--तस४-थिरादि छ०णिमि० पिबं० सखेज्जगुणब्भहियं० । ओरालि०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०मणुसाणु० णि• बं० । तं तु० । तित्थय सिया० संखेज्जगु० । एवं ओरालि. ओरालि अंगो०-वज्जरि०-मणुसाणु० । ३४५. देवगदि० जहि०० परिहार-पढमदंडो कादव्यो । अथिरं पि तस्सेव विदिय-दंडओ । एवं पम्माए । ३४६. सुक्काए सत्तएणं कम्माणं मणजोगिभंगो । मणुसगदि-ओरालि - ओरालि अंगो०-वज्जरि०-मणुसाणु० पम्माए भंगो। णवरि जस० णि. बं. अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शोकका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३४४. तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इनका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है। मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रियजाति, तैजस शरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रसवतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। औदारिक शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानपूर्वी इनका नियमसे होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवीं भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है।यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३४५. देवगतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके परिहारविशुद्धिसंयतका प्रथम दण्डक कहना चाहिए और अस्थिर प्रकृति भी कहना चाहिए । तथा उसीके दूसरा दण्डक कहना चाहिए । इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिए । ३४६. शुक्ललेश्यामें सात कौका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका भङ्ग पद्मलेश्याके समान है। इतनी विशेषता है कि यश-कीर्तिका नियमसे बन्धक होता है २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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