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________________ १६० महाबंधे ट्टिदिबंधाहियारे क० - पुरिस० - हस्स-रदि-भय-दुगु ० णि० बं० संखेज्जगु० । एवं तिरिणकसा० । ३४० पच्चक्खाणकोध० ज०ट्ठि० वं० तिरिएक० रिण० बं० । तं तु० । चदुसंज० - पुरिस० - हस्स - रदि-भय-दुगु० णि० बं० संखेज्जगु० । एवं तिणिकसा० । ३४१. कोधसंज० ज० द्वि० बं० तिरिणसंज० -- पुरिस० -- हस्स--रदि-भय-- दुगुं ० णि० बं० । तं तु० । एवमेदाओ ऍकमेक्स्स । तं तु । ३४२. इत्थि० ज० द्वि०बं० मिच्छ०- सोलसक० -भय-दुर्गा० शि० बं० संखेज्ज - गुणन्भहियं ० । हस्स-रदि- अरदि-सोग० सिया० संखेज्जगु० । एवं एस० । ३४३, अरदि० ज० द्वि०बं० चदुसंज० - पुरिस०-भय-- दुगु ० णि० बं० संखे जघन्य की अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पत्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसीप्रकार तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३४० प्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तीन कषायका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य -स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। चार सं ज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसीप्रकार तीन कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३४१. क्रोधसंज्वलन की जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तीन संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका संख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । इसीप्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु ऐसी अवस्थामें वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है. तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । ३४२. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसीप्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३४३. अरतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव चार संज्वलन, पुरुषवेद भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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