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________________ जहण्णसत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा १५६ कसा० - पुरिस०--भय-दुगु ० रिंग० संखेज्जगु० । सोग० पियमा बं० । तं तु० । एवं सोग० । ३३६. असंजद० तिरिक्खोघं । वरि तित्थय० श्रघं । वरि जस० णि बं० संखेज्जगु० । ३३७. चक्खुदंस० तसपज्जत्तभंगो | अचक्खुदं० मूलोघं । श्रधिदंस० अधिपाणिभंगो । ३३८. किरण -- पील -- काऊरणं असंजदभंगो। एवरि किरण - पीलाएं तित्थयरं देव दिसह कादव्वो । काउए पढमपुढविभंगो। तेऊए छणं कम्माणं सोधम्मभंगो । मिच्छ० ज० द्वि० ० अताणु - बंधि०४ ०ि बं० । तं तु० । बारसकसा० - पुरिस०हस्स -रदि-भय-दुगु ० शि० वं० संखेज्जगु० । एवं अताणुबंधि०४ । ३३६. अपञ्चक्रखाणकोध० ज० द्वि० बं० तिणिकसा० णि बं । तं तु० । जघन्य स्थितिका बन्धक जीव आठ कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । शोक का नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजयन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य की अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३३६. असंयत जीवोंमें सामान्य तिर्यञ्चोके समान जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग श्रोघके समान है । इतनी विशेषता है कि यशःकीर्तिका नियम से बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । ३३७. चक्षुदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग त्रसपर्याप्त जीवोंके समान है। अचक्षुदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग मूलोघके समान है । श्रवधिदर्शनवाले जीवोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है । ३३८. कृष्ण, नील, और कापोत लेश्यावाले जीवोंका भङ्ग असंयत जीवोंके समान है । इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नील लेश्यावाले जीवोंके तीर्थंकर प्रकृति देवगति सहित कहनी चाहिए । कापोत लेश्या में तीर्थकर प्रकृतिका भङ्ग पहली पृथ्वीके समान है । पीत श्यामें छह कर्मोंका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है । मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव अनन्तानुबन्धी चारका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवीं भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चारकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३३९. श्रप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तीन कषायका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमले For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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