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________________ परत्थापट्टिदिश्रप्पा बहुगपरूवणा ३०१ देवायु० उ०हि० संखज्ज० । यहि० विसे० । पुरिस० [ -हस्स-रदि-] देवगदि०वेडव्वि० - जसगि०-उच्चागो० उ० हि० संखज्ज० । यहि० विसे० । सादावे० - मणुसग०उ०वि० विसे । यद्वि० विसे० | पंचणोक० - तिरिक्खग० - तिरिणसरीर- अजस०णीचा० उहि० विसे० । यद्वि० विसे० | पंचणा० - - गवसणा०-- असादा०-०--पंचंत० उ०वि० विसे० । यहि० विसे० । सोलसक० उ०हि० विसे० । यट्टि० विसे० । ६५७. असरणीसु सव्वत्थोवा तिरिक्ख- मणुसायु० उ० हि० । यहि० विसे० । देवा० उ०हि० असंखेज्ज० । यहि० विसे० । रियायु० उ०हि० संखेज्ज० । यहि० विसे० । पुरिस० - देवर्गादि -- उच्चागो० उ०हि० असंखेज्ज० । यद्वि० विसे० इत्थि० उ०हि० विसे० । यहि० विसे० । जसगि० उ० हि० विसे० । यहि० विसे० । मणुसग० उ०ट्टि० विसे० । यद्वि० विसे० । हस्स - रदि उ० द्वि० विसे० । यहि० विसे० । तिरिक्खगदि-ओरालि० उ०द्वि० विसे० । यद्वि० विसे० । पंचपोक० - रियगदि-तिरिणसरीर अजस- रणीचा० उ०हि० विसे० । यहि विसे० । सादा० उ० हि० विसे० | यहि० विसे० | पंचणा० - वदंसणा० - प्रसादा० पंचंत० उ०वि० विसे० । बन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पुरुषवेद, हास्य, रति, देवगति, वैक्रियिकशरीर, यशःकीर्ति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे सातावेदनीय और मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच नोकपाय, तिर्यञ्चगति, तीन शरीर, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सोलह कपायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । ६५७. असंशी जीवोंमें तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यागुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है | इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पुरुषवेद, देवगति और उच्चगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यशःकीर्तिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे हास्य और रतिका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक । इससे तिर्यञ्चगति और औदारिकशरीरका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकपाय, नरकगति, तीन शरीर, अयशःकीर्ति और नीचगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे सतावेदनीयका उत्कृष्ट स्थिति विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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