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________________ २२० महाबंधे द्विदिबंधाहिया रे पुरिस० - समचदु० - पसत्थवि० - सुभग- सुस्सर - श्रादे० उच्चा० उक्क० दिवडचोदस० । • सव्वलो ० | उब्वियछ० श्रोधं । उज्जो० - जसगि० उक्क० सत्त - चोदस० । अणु० सव्वलो ० | मणुसायु० श्रघं । वरि वज्जे णत्थि । ४८१ पंचिदियतिरिक्खतिरिण० पंचणा० - णवदंसणा०-मिच्छ - प्रसादा सोलसक० स० - अरदि-सोग-भय- दुगुं० - तेजा० - क० - हुंड० - वण्ण०४ अगु० ४ पजत-पचे० - श्रथिरादिपंच - णिमि० णीचा० - पंचंत० उक्क० लो० असंखे० बच्चो स० । अणु० सव्वलो० । सादावे ० - हस्स - रदि-तिरिक्खगदि - एइंदि० - ओरालि० - तिरिक्खाणु ०-यावरादि०४--थिर - सुभ० उक्क० अणु० लोग० असंखे० सव्वलो० । इत्थि० उक० खेत्तं । श्रणु० दिवडचोइस० । पुरिस० - देवर्गादि - समचदु० -देवाणु ०पसत्थ- सुभग- सुस्सर - प्रादे० - उच्चा० उक्क० खेतभंगी । किं णिमित्तं भवणवासीए उपजदि सोघम्मीसाणे ण उपजदि त्ति उकस्सट्ठिदिबंधंतो तेरा खेत्तं इदरत्थ दिवड - चोदस० । अणु छच्चोंदस० । गिरयग० - गिरयाणु • उक्क० अणु ० छच्चोद्दस० । पंचिंदि० - उत्रि० – वे उच्च ० अंगो ० ० -तस० उक० छच्चोंदस० । श्रणु० बारह० । ० ० संहनन और आप इनकी मुख्यतासे स्पर्शन क्षेत्रके समान है । पुरुषवेद, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग सुरवर, आदेय और उच्चगोत्र इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजू क्षेत्र का स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वैक्रियिक छहकी मुख्यंतासे स्पर्शन के समान है । उद्योत और यश कीर्तिकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम सात बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । ० ४८१. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में पाँच ज्ञानावरण, नौदर्शनावरण, मिथ्यात्व, असाता वेदनीय, सोलहकषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, गोत्र और पाँच अन्तराय इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवों ने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कुष्ट स्थिति बन्धक जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सातावेदनीय, हास्य, रति, तिर्यगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, स्थावर आदि चार, स्थिर और शुभ इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । aarat उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवने कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पुरुषवेद, देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र इनकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। क्योंकि यह जीव भवनवासियोंमें उत्पन्न होता है; सौधर्म और ऐशान कल्पमें नहीं उत्पन्न होता, इसलिए उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । अन्यत्र कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजू स्पर्शन है । अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है । नरकगति और नरगत्यानुपूर्वीकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राज् क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आंगोपांग और बस इनकी उत्कृष्ट स्थिति बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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