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________________ जहण्णसत्थाणबंध सण्णिवासपरूवणा १४५ ३०६. मणुसग० ज० द्वि०बं० ओरालि० - ओरालि० अंगो० -- वज्जरि०- मणुसाणु० शि० बं० । तं तु ० । सेसा पसत्थाओ णि० बं० संर्खेज्जगु० । जसगि ० रिण० बं० असंखेज्जगु० । तित्थय० सिया० संखेज्जगु० । एवं ओरालि ० - ओरालि ० अंगो० - वज्जरि०-मणुसागु० । ३१०. देवगदि० ज० द्वि०बं पंचिंदि० पसत्थपगदीओ गि० बं । तं तु० । आहारदुग - तित्थय • सिया० । तं तु० । जसगि० - णि० बं० असंखेज्जगुणभ० । air ऍक्कमेस्स । तं तु० । ३११. एइंदि० ज० द्वि०बं० तिरिक्खगदि --ओरालि ०-तेजा० क० - वरण०४तिरिक्खाणु०-अगु०४-बादर -- पज्जत्त - पत्ते ० - णिमि० णि० बं० संखेज्जगु० | हुड० ३०६. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव श्रदारिक शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवीं भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । शेष प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार श्रदारिक शरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३१०. देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका नियम से बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजधन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । आहारकद्विक और तीर्थंकरका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन सबका परस्पर सन्निकर्ष होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियम से जघन्य की अपेक्षा श्रजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । ३११. एकेन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तिर्यञ्चगति श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, श्रगुरुलघुचतुष्क, बादर, पर्याप्त १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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