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उक्कस्ससत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा
उक्क हिदिवं० मिच्छ०-सोलसक-भयदुगु० णिय. संखेज्जदिभागू० । इत्थि०णवुस० सिया बं० संखेज्जदिभाग० । पुरिसवे० सिया० । तं तु । रदि० णिय। तं तु. । एवं रदीए ।
५५. तिरिक्खग० उक.हिदिवं० एइंदि०-पंचिंदि०-ओरालि अंगो०-असंपत्त०पर-उस्सा--आदाउज्जो --अप्पसत्थ---तस-थावर-बादर-सुहुम-पज्जत्त-पत्तेय-- साधार०-दुस्सर० सिया० । तं तु । ओरालि०-तेजा०-का-हुंड-बएण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०-उप०-अथिरादिपंच०-णिमि० णियमा० । तं तु० । एवं तिरिक्वगदिभंगो ओरालि०-तेजा-क०-हुंड-वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०-उप-अथिरादिपंचणिमिण ति।
और शोकका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। हास्यकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँभागहीन स्थितिका बन्धक होता है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यन तक स्थितिका बन्धक होता है। रतिका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार रतिके आश्रयसे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
५५. तिर्यश्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, परघात, उच्छास, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, प्रत्येक, साधारण और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यश्वगत्यानुपूर्वो, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर
आदि पाँच और निर्माण इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके आश्रयसे सन्निकर्षका भङ्ग तिर्यश्च गतिके समान जानना चाहिए ।
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