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________________ ३० महावंध ट्ठिदिबंधाहियारे ५६. मणुसगदि. उक्क हिदिवं० पंचिंदि०-ओरालि -तेजा०-क०-ओरालि०अंगो०-वएण०४-अगु०-उप०-तस-बादर-पत्ते-अथिरादिपंच-णिमि० णिय० वं० । णि अणु० संखेज्जदिभाग० । तिषिणसंठा-तिएिणसंघ०-अप्पसत्थ० पर०-उस्सापज्जत्तापज्जत्त०-दुस्सरं सिया संखेज्जदिभागू० । मणुसाणु० णिय० । तं तु० । एवं मणुसाणु० । ५७. देवगदि० उक्क हिदिबं० पंचिंदि-तेजा०-क-समचदु०--वएण०४अगु०४-पसत्थवि०-तस०४-अथिर- असुभ-सुभग-सुस्सर-आदे-अजस-णि णिय० संखेंज्जगुणहीणं बं० । वेउवि०-वेउवि अंगो०-देवाणु० णि बं०। णि० तं तु० । तित्थयरं सिया० । तं तु० । एवं देवगदि०४ । ५८. एइंदि० उक्क हिदिबं० तिरिक्वग०-ओरालि०-तेजा-क-हुड० ५६. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। तीन संस्थान, तीन संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, परघात, उच्छ्वास, पर्याप्त, अपर्याप्त और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। मनुष्यगत्यानुपूर्वीका बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ५७. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुखर, आदेय, अयश-कीर्ति और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है । जो अनुत्कृष्ट संख्यात गुणहीन स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक प्राङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट स्थिति का भी बन्धक होता है और अनत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनत्कृष्ट स्थिति का बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यन तक स्थितिका बन्धक होता है । तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार देवगति चतुष्कके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ५८. एकेन्द्रिय जातिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलधु, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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