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________________ जहरणपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा १९३ ४१८. चदुसंठा०-चदुसंघ० हेहा उवरिं णग्गोदभंगो। णाम अप्पप्पणो सत्याणभंगो। वरि विसेसो कादयो । अप्पसत्थविहा०-भग-दुस्सर-अणादे गग्गोदभंगो । वरि किंचि विसेसो णादव्यो । ४१६. आभिणि-सुद-श्रोधि० आभिणिवोधि० ज०हि०० चदुणाणावरणादिखविगाणं ओघं । णिहाए जहि बं० पंचणा० मणजोगिभंगो। एवं पचला। असादा० ज०हि०७० मणजोगिभंगो।। ४२०. मणुसायु० ज०हिबं० पंचणा-चदुदंसणा०-चदुसंज०-पुरिस०उच्चा--पंचंत० णि. बं. असंखेज्जगु० । णिदा-पचला-अहक०-भय-दु०-मणुसगदिपंच०-पंचिंदि०--तेजा०--क०-समचदु०--वएण-४ अगु०-पसत्थवि०--तस०४सुभग-मुस्सर--प्रादें--णिमि० णि. बं. संखेज्जगु० । सादा०--जस. सिया० असंखेज्जगु० । असादा-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस० सिया० संखेंजगु० । हस्स-रदि-थिर-सुभ-तित्थय सिया० संखेंजगु० । ४१८. चार संस्थान और चार संहननकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके नीचे ऊपरकी प्रकृतियोंका भङ्ग न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानके समान है। नामकर्मको अपनीअपनी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है। किन्तु यहाँ जो विशेषता हो,उसे जानकर कहनी चाहिए। अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानके समान है। किन्तु यहाँ जो विशेषता है, उसे जानकर कहनी चाहिए। ४१९. श्राभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिमानी जीवोंमें आभिनिबोधिक शानावरणकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके चार ज्ञानावरण आदि क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। निद्राकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके पाँच ज्ञानावरण आदिका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। इसी प्रकार प्रचलाकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना वाहिए । असाता वेदनीयको जघन्य स्थितिके बन्धक जीवका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। ४२०. मनुष्य आयुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानाधरण, चार दर्शनावरण, चार से ज्वलन, पुरुषवेद, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। निद्रा, प्रचला, पाठ कषाय, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगतिपञ्चक, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। सातावेदनीय और यशः कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यात गुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, स्थिर, शुभ और तीर्थंकर प्रकृति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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