SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९२ महाबंधे ट्ठिदिवंधाहियारे णीचागो णि । तं तु । उज्जो सिया० । तं० तु. । एवं तिरिक्वाणु०-उज्जो - णीचागो०। ४१६. मणुसग० ज०हि०बं० हेट्टा उवरि तिरिक्खगदिभंगो। णाम सत्थाणभंगो। ४१७. णग्गोद० जहि०० पंचणा-गवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०पुरिस०-भय-दु०-णाम सत्थाणभंगो पंचंत• णि• बं० संखेज्जगु० । सादाव०-हस्सरदि-णीचुच्चागो० सिया० संखेंजगु० । असादा०-अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अज. सिया० संखेजदिभा० । तिरिक्व-मणुसगदि-वजरि०-दोआणु-थिर-सुभ-जसगि० सिया० संखेंजगु० । वज्जणारा० सिया० । तं तु० । एवं वज्जणारायण । Annnnn... इनका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, उद्योत और भौचगोत्रकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहना चाहिए। ४१६. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके नीचे ऊपरकी प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है । नाम कर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है। ४१७. न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलहकषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, स्वस्थान भङ्ग रूपसे कही गई नामकर्मकी प्रकृतियाँ और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। साता चेदनीय, हास्य, रति, नीचगोत्र और उच्चगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि वन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो अानुपूर्वी, स्थिर, शुभ और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । वज्रनाराचसंहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अजधन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवॉ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार बज्रनाराचसंहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy