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________________ जहण्णपरत्थाणवंधसणिणयासपरूवणा १९१ ४११. णिरयायु० ज हिवं. पंचणा०-गवदंसणा--मिच्छ०-सोलसक०भय-दु०-पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा०-का-वेउवि०अंगो०--वएण०४--अगु०४-तस०४णिमि०-णीचा०--पंचंत णि• बं० संखेज्जगु० । असाद०--णवुस --अरदि-सोगणिरयगदि-हुड०-णिरयाणु०-अप्पसत्थ०-अथिरादिछ० णि० बं० संखेजभाग० । ४१२. तिरिक्वायु० ज०हिबं० तिरिक्खगदि याव मण भंगो । मणुसायु० जहिबं० तिरिक्वायुभंगो। ४१३. देवायु० ज०हि०७० पंचणा०-णवदंसणा-सादावे-मिच्छ०-सोलसक०-हस्स-रदि-भय--दु०-देवगदि-पसत्थहावीस--उच्चा०--पंचंतणि बं० संखेज्जगु० । इत्थिवे० सिया० संखेजभा० । पुरिस० सिया० संखेजगु० । ४१४. णिरय० ज०हि बं० हेट्टा उवरिं णिरयायुभंगो। णाम सत्थाणभंगो। ४१५. तिरिक्वग० जहि०० पंचणा०-णवदंसणा० सादा०-मिच्छ०-सोलसक-पंचणोक०-णाम सत्थाणभंगो पंचंत० णि. बं० संखेजगु० । तिरिक्खायु० ४११. नरकायुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। असाता वेदनीय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, नरकगति, हुण्डसंस्थान, नरकगत्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छह इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। ४१२. तिर्यञ्चायुकी जघन्य स्थितिके वन्धक जीवके तिर्यञ्चगति आदि प्रकृतियोंका भङ्ग मनोयोगी जीवोंके समान है। मनुष्यायुकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवका भङ्ग तिर्यञ्च आयुके समान है। ४१३. देवायुकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति आदि प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियाँ, उच्चगीत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। स्त्रीवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। ४१४. नरकगतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके नीचे-ऊपरकी प्रकृतियोंका भङ्ग नरकायुके समान है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थानके समान है। ४१५. तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, साता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पाँच नोकषाय स्वस्थानके समान नामकर्मकी प्रकृतियाँ और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका वन्धक होता है। तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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