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________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे सुस्सर-आदे० - णिमि०पंचंतरा० णि० बं० संखेज्जगु० । हस्स - रदि- तिरिणगदिओरालि० - वेउच्चि ० सरीर दोअंगो० - वज्जरि० - तिरिण आणु० - उज्जो ० - थिर- सुभ-जस०दोगोद० सिया संखेज्जगु० । अरदि-सोग - अथिर असुभ अस० सिया० । तं तु० । एवं अरदि-सोग - अथिर असुभ अजस० । १९० ४१०. इत्थवे० ज० द्वि० बं० पंचरणा० - णवदंसणा०-मिच्छत्त- सोलसक० -भयदु० - पंचिंदि० - तेजा ० - ० - वरण ०४ -- गु० - पसत्थ० -तस०४ - सुभग- सुस्सर - आदेοसिमि० पंचंत० णि० बं० संखेज्जगु० । सादा०-हस्स-रदि- तिरिणगदि- दोसरीर-समचदु०-दो अंगो० वज्जरि० - तिरिणाणु ० -उज्जो० - थिरादितिणि- दोगोद० - सिया-संखेज्जगु० | असादा० - अरदि-सोग दोसंठा ० - दोसंघ० -- अथिरादितिरिण० सिया० संखेंजभा० । एवं एस० । णवरि चदुसंठा० चदुसंघ० सिया० संखेज्जभा० । 0-1 बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । हास्य, रति, तीन गति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दो श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन, तीन आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति और दो गोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । श्ररति, शोक, अस्थिर, अशुभ और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवीं भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्तिकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । ४१०. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रदेय, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । सातावेदनीय, हास्य, रति, तीन गति, दो शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, तीन श्रानुपूर्वी, उद्योत, स्थिर आदि तीन और दो गोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, अरति, शोक, दो संस्थान, दो संहनन और अस्थिर श्रादि तीन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातव भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार नपुंसक वेद की मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि चार संस्थान और चार संहनन इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् बन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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