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________________ महाबंधे द्विदिबंघाहियारे १६१. मणुसगदि० उक०हिदिवं. पंचणा-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०णवूस-भय-दुगु-पंचिंदि-ओरालि०-तेजा--क-हुंड०--ओरालि०अंगो०--असंपत्त०-वएण०४-अगु०-उप-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेय०-अथिरादिपंच-णिमि०-णीचा०पंचंत. णिय० बं० संखेज्जदिभाग । सादासाद०-हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया. संखेज्जदिभाग० । मणुसाणु० णि वं० । तं तु० । एवं मणुसाणु । १६२. बीइंदि० उक्क हिदिवं० पंचणा-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०णवुस०--भय--दुगु-तिरिक्खग०-ओरालि०-तेजा०-क-हुंड --वएण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०-उप०-बादर-अपज्जत्त-पत्ते-अथिरादिपंच--णिमि०--णीचा०-पंचंतरा० णि बं० संखेजदिभाग० । सादासाद-हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया० संखेजदिभाग । ओरालि०अंगो०-असंपत्त-तस० णि० बं० । तं तु० । एवं ओरालि.. अंगो -असंपत्त०-तस. त्ति । १६१. मनुष्यगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट, संख्यातवाँ भाग होन स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट,संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । मनुष्यगत्यानुपूर्वी का नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । १६२. द्वीन्द्रिय जातिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, बादर, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट,संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन और त्रस इनको नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवों भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्रातासृपाटिका संहनन और त्रस इन प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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