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उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिण्यासपरूवरणा
तिरिणसंघ० - दोचाणु० - थिराथिर - सुभासुभ-जस० - अजस० सिया० संखेंज्जदिभागू० । उज्जो सिया० संखेंज्जदिभागू० ।
१५६. पुरिस० उक० द्विदिवं० पंचणा० एवदंसणा०-मिच्छ० - सोलसक०-भयदुगु० - पंचिंदि० -ओरालि ० तेजा० क० ओरालि० अंगो०- वरण ०४ - अगु०४--तस०४णिमि० - पंचंत० णि० बं० संखेज्जदिभागू० । सादासाद० - हस्स - रदि- अरदि-सोगतिरिक्खगदि- मणुसगदि-पंचसंठा०-पंच संघ० - दोश्राणु ० --उज्जो ० -- थिराथिर - सुभासुभ-दूर्भाग- दुस्सर-अरणादेज्ज-जस० - अजस० - णीचा० सिया० संखेज्जदिभागू- । समचदुर० वज्जरि ० - पसत्थवि ० - सुभग-सुस्सर यादे ० ० उच्चा० सिया० । तं तु० | एवं पुरिसवेदभंगो समचदु० - वज्जरिस०--पसत्थ० - सुभग-- सुस्सर - आदेο-- उच्चा० । वरि उच्चागो०-तिरिक्खग० - तिरिक्खाणु०-उज्जो० वज्ज ।
१६०. तिरिक्ख- मणुसायु ० गिरयभंगो । गवरि संखेज्जदिभागूणं बं० ।
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गति, तीन संस्थान, तीन संहनन, दो श्रानुपूर्वी, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका वन्धक होता है । उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है ।
१५६. पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भागहीन स्थितिका बन्धक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, हास्य, रति, रति, शोक, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, श्रनादेय, यशःकीर्ति, श्रयशःकीर्ति और नीचगोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवां भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्च गोत्र इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवां भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पुरुषवेदके समान समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, श्रदेय और उच्चगोत्र की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि उच्चगोत्रकी अपेक्षा सन्निकर्ष कहते समय तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत इनको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए ।
१६०. तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष नरकके समान है । इतनी विशेषता है कि यहाँ संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है ।
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