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________________ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे चा-पंचंत० संखेज्जदिभाग० । सादासाद०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-उज्जो०-थिराथिरसुभासुभ-जस०-अजस० सिया० संखेज्जदिभागः । दुस्सर- णिय. बं० । तं तु०। एवं दुस्सर० । १६६. बादर० उ०हि०० पंचणा-पावदसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-णबुंस.. भय-दुगु-तिरिक्खगदि-एइंदि०-ओरालि०-तेजा०-क-हुंड०-ओरालि०अंगोवरण ४-तिरिक्खाणु०-अगु०-उप.-थावर-अपज्जत्त-साधार-अथिरादिपंच--णिमि.-- णीचा०-पंचंत० णि• बं० संखेज्जदिभागू० । सादासाद०-हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया० संखेजदिभाग। १७०. पत्तेय० उ०हि०व० पंचणा-णवदसणा-मिच्छ०-सोलसक०-णस०. भय-दु०-तिरिक्खग-एइंदि०-पोरालि०--तेजा--क-हुड०-ओरलिअंगो०--तिरि-- क्वाणु०--वएण०४-अगु०-उप०-थावर-सुहुम-अपज्जत्त-अथिरादिपंच-णियि०-णीचा०पंचंत० णि० बं० संखेज्जदिभागूछ । सादासाद०-हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया. संखेजदिभागू० । वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशः कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका वन्धक होता है। दुःस्वर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार दुःस्वर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। १६९, वादर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसक वेद, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक साङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, अगुरु लघु, उपघात, स्थावर, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसेअनुत्कृष्ट, संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । साता वेदनीय, असातावेदनीय, हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट, संख्यातवा भाग न्यन स्थितिका बन्धक होता है। १७०. प्रत्येक प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व,सोलह कपाय, नपुंसक वेद,भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगत्यानु पूर्वी, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, अस्थिरादि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है । साताबेदनीय,असाता वेदनीय, हास्य, रति, परति और शोक इनका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट,संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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