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________________ उक्कस्सपरत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा १७१. उच्चा० उ०हि०० धुवपगदीणं णियमा संखेज्जदिभागू० । सेसाम्रो परियत्तमाणियारो तिरिक्रवगदिसंजुत्तानो वज्ज सिया संखेज्जदिभागणं० । १७२. मणुस०३ पंचिंदियतिरिक्खभंगो। रणवरि आहारदुगं तित्थयरं ओघं । मणुसअपज्जत्त. पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो । १७३. देवेसु आभिणिबोधि० उक्क ट्ठिदिवं० चदुणा०-णवदंसणा० असादा०मिच्छ०-सोलसक०-णवुस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-तिरिक्खग०-ओरालि०--तेजा०क०-हुड०-वएण०४-तिरिक्खाणु०-अगु०४-बादर-पज्जत्त-पत्ते०-अथिरादिपंच-णिमि०णीचा०-पंचंत० णि बं० । तं तु० । एइंदि०-पंचिंदि--ओरालि अंगो०-असंपत्ताआदाउज्जो०-अप्पसत्थ०-तस-थावर-दुस्सर• सिया । तं तु । एवमेदाओ ऍकमेंकस्स । तं तु० । १७१. उच्च गोत्रकी उत्कृष्ट स्थितिका वन्ध करनेवाला जीव ध्रुव प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। शेष जितनी परावर्तमान प्रकृतियाँ हैं उनमेंसे तिर्यञ्चगति संयुक्त प्रकृतियोंको छोड़कर बाकी की प्रकृतियोंका कदाचित् वन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट,संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। १७२. मनुष्यत्रिकका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि आहारक द्विक और तीर्थकर इन तीन प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। तथा मनुष्य अपर्याप्तकोंका भङ्ग पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है। १७३. देवोंमें प्राभिनिबोधिक ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमले उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यनतक स्थितिका बन्धक होता है। एकेन्द्रिय जाति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति. त्रस, स्थावर और दुःस्वर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु ऐसी अवस्थामें वह उत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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