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________________ ४१२ महाबँधे द्विदिबंधाहियारे ओघं । णवरि अवत्त ० देवो त्ति ण भाणिदव्वं । एवं पंचमण० - पंचवचि० | देवेसु णिरयभंगो । ८६६. एइंदिय - पंचकासु धुविगाणं एकवड्डि- हाणि - अवडि० कस्स ० १ अण्ाद० । साणं एकवड्डी- हाणि अवट्ठि० कस्स ० १ अण्ण० । अवत्त० कस्स० ? अण्ण० परियत्त० पढम० । विगलिदिएसु धुविगाणं दोवड्डि-हाणि-अवट्ठि० बंधो कस्स ० १ अण्ण० | सेसाणं दोण्णिवढि हाणि अव०ि णाणावरणभंगो । अवत्त० कस्स ० १ अण्ण० परियत्त० पढम० । पंचिदि० तस्सेव पत्ता ओघं । णवरि पंचिंदि० सण्णि० असण्णि० - पजत्त० - अपजत्त चि भाणिदव्वं । तस-तसपजत्ता ओघं । णवरि बीइंदि० तीइंदि० चदुरिंदि० पंचिंदि० सण्णि असण्णि० [० पत्ता अपजत्ता त्ति भाणिदव्वं । C ८७०. ओरालिका० ओवं । णवरि देवो त्ति ण भाणिदव्वं । ओरालियमि० तिरिक्खोघं । णवरि मिच्छ० कस्स० अण्ण० सासण: परिवद० पढम० मिच्छादिट्टि० । देवगदि ०४ - तित्थय० अवत्त णत्थि । वेउब्विय ० उब्वियमि० देवोघं । आहार०आहार मि० धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्ठि० कस्स ० १ अण्णद० । सेसाणं तिण्णिवड्डिहाणि - अवट्टि • णाणावरणभंगो । अवत्त० ओघं सादभंगो । कम्मइग० धुविगाणं देवगदि ० to वर्ती देव होता है, यह नहीं कहना चाहिए। इसी प्रकार पाँच मनोयोगी और पाँच वचनयोगी जीवोंके जानना चाहिए। देवों में नारकियोंके समान भङ्ग है । ६६. एकेन्द्रियों में और पाँच स्थावर कायिक जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। शेष प्रकृतियों की एक वृद्धि, एक हानि और अवस्थितबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है । अवक्तव्य बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर परिवर्तमान प्रथम समयवर्ती जीव स्वामी है । विकलेन्द्रियोंमें ध्रुवबन्ध-' वाली प्रकृतियोंकी दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है । शेष प्रकृतियोंकी दो वृद्धि, दो हानि और अवस्थित बन्धका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । अवक्तव्यबन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर परिवर्तमान प्रथम समयवर्ती जीव स्वामी है । पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में ओघ के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय संज्ञी - श्रसंज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसा कहना चाहिए। त्रस और सपर्याप्त जीवों में ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पचेन्द्रिय संज्ञी असंज्ञी पर्याप्त व अपर्याप्त ऐसा कहना चाहिए । I ८७०. औदारिक काययोगी जीवों में ओघ के समान भंग है । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य बन्धका स्वामी प्रथम समयवर्ती देव होता है, ऐसा नहीं कहना चाहिए। औदारिक मिश्रकाययोगी जीवों में सामान्य तिर्यञ्चों के समान भंग है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्य वन्धका स्वामी कौन है ? अन्यतर सासादन सम्यक्त्वसे गिरकर प्रथम समय में मिध्यादृष्टि हुआ जीव स्वामी है । देवगति चतुष्क और तीर्थंकर प्रकृतिका अवक्तव्य बन्ध नहीं है । वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक गोपांगका भंग सामान्य देवोंके समान है । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में धवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी कौन हैं ? अन्यतर जीव स्वामी हैं। शेष प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका स्वामी ज्ञानावरण के समान है । अवक्तव्य बन्धका स्वामी ओघ में कहे गये सातावेदनीयके समान है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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