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________________ जहण्णसत्थाणबंध सरिणयासपरूवणा १३६ 1 णि० वं० । तं तु० । एवं एदा ऍकमेकस्स । तं तु० । चदुजादि० श्रघं । वरि याओ पि० बं० संखे ० • "यि० बं० तं तु । याओ सिया बं० तंतु० ताओ तथा चे० कादव्वा । पंचसंठा० - पंचसंघ० - अप्पसत्थ० दूर्भाग- दुस्सर - अणादें रियोघं । २६३. अथिर० ज० द्वि० बं० देवगदि-पंचिंदि० - वेउव्वि ० तेजा ० क ० - समचदु०वेडव्वि० अंगो० -- वरण०४ - देवाणु० - अगु० ४ - पसत्थ० -तस०४- सुभग-मुस्सर श्रादें ०णिमि० णि० बं० संखेज्जदिभाग० । असुभ अजस० सिया० । तं तु० । सुभगजसगि० सिया० संखेज्जदिभाग० । एवं सुभ-अस० "वरि एइंदि० विगलिंदियसंजुत्ताओ ताम्र पंचिदियतिरिक्खभंगो । ~ २६४, मणुस०३ सत्तण्णं कम्माणं मूलोघं । वरि मोह - इत्थि० - स अदि-सोगा या असंखेज्जदिभागन्भहियाओ ताओ संखेज्जभागब्भहियाओ । रियगदि-रियाणु० श्रघं । तिरिक्ख ०- मणुसगदि-ओरालिय ० -तेजा० - क० - पंचसंठा० किसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । चार जातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि जिनका नियमसे बन्धक होता है, उनका संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है तथा जिनका कदाचित् 'तं तु' रूपसे बन्धक होता है, उनका उसी प्रकार बन्धक होता है । पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष सामान्य नारकियोंके समान है । २३. अस्थिर प्रकृतिकी अधन्य स्थितिका बन्धक जीव देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैकिविक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रदेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातव भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । अशुभ और अयशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियगसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । सुभग और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका भी बन्धक होता है । इसी प्रकार अशुभ और यशःकीर्तिकी मुख्यताले सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय सहित इनका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चके समान है । । २९४. मनुष्यत्रिमें सात कर्मोंका भङ्ग मूलोघके समान है । इतनी विशेषता है कि मोहनीय के स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, ऋरति और शोक इनमें से जो प्रकृतियाँ श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक कही हैं उन्हें संख्यातव भाग अधिक जानना चाहिए । नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वीका भङ्ग श्रधके समान है । तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, श्रदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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