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________________ महाबंधे टिदिबंधाहियारे ओरालि अंगो०-छस्संघ-वएण०४-दोआणु-अगु०४-आदाउज्जो०-दोविहा--तस थावरादिणक्युगल-अजस-णिमि० एदाणं णिरयोघं । णवरि जस० ओघभंगो कादव्यो। सव्वासिं देवगदि० ज०द्वि०बं० पंचिंदि० पसत्थाणं णि. बं. संखेज्जगुणब्भहियं० । वरि वेउवि०-वेउवि०अंगो०-देवाणु० पि. बं०। तं तु । आहार०-आहार-अंगो०-तित्थय० सिया बं० । तं तु. । एवं वेउवि०-आहारदोअंगो०-देवाणु०-तित्थयरं च । मणुसअपज्जत्त० तिरिक्खअपज्जत्तभंगो। २६५ देवेसु एइंदिय-आदाव-थावर० पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो । एवं भवणवासि-वाणवेतर० । जोदिसिय याव गवगेवज्जा त्ति विदियपुढविभंगो । णवरि जोदिसिय याव सोधम्मीसाण त्ति एइंदिय-आदाव-थावर देवोघं । सणकुमार याव सहस्सार ति.तिरिक्खगदि-तिरिक्वाणु० उज्जो । उवरि मणुसगदि० आणद याव गवगेवज्जा त्ति । अनुदिस याव सव्वहा त्ति मणुसग जहि०बं० गवगेवज्ज लघुचत तहक. शरीर, पाँच संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, वर्ण चतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरु । प्रातप, उद्योत, दो विहायोगति, त्रस-स्थावर आदि नौ युगल, अयश-कीर्ति और निर्माण इनका सन्निकर्ष सामान्य नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि यशःकीर्तिका भङ्ग ओघके समान करना चाहिए। उक्त सब मनुष्योंमें देवगतिकी जघन्य स्थिति का बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति आदि प्रशस्त प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। श्राहा क शरीर, आहारक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकोंका भङ्ग तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान है। २९५. देवोंमें एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर इनका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भङ्ग पहली पृथ्वीके समान है। इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवोंके जानना चाहिए । ज्योतिषियोंसे लेकर नौ नौवेयक तकके देवोंका भङ्ग दूसरी पृथ्वीके समान है। इतनी विशेषता है कि ज्योतिषियोंसे लेकर सौधर्म और ऐशान कल्पतकके देवोंमें एकेन्द्रिय जाति, आतप और स्थावर इन तीन प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है । सानकुत्मार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तक तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतका सन्निकर्ष जानना चाहिए। आगे आनत कल्पसे लेकर नव वेयक तक मनुष्यगतिकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए। अनुदिशसे लेकर Jain Education International For Private & Personal Use Only •www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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