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________________ १३८ महाबंधे टिदिबंधाहियारे २६०. तिरिक्खग. जाहि०बं० पंचिंदि०-ओरालि-तेजा-क०-ओरालि. अंगो०-वएण०४-अगु०४-तस-णिमि० णि० ० संखेंजभागभ०। छस्संठा०छस्संघ०-दोविहा०-थिरादिछयु० सिया० संखेज्जभागब्भ० ।तिरिक्वाणु०णि बं० । तं तु० । एवं तिरिक्खाणु । [ उज्जोव० सिया० । तं तु० । एवं ] उज्जो । २६१. मणुसग० ज.हि०० ओरालि०-ओरालि अंगो०-वज्जरिस०-मणुसाणु० णि• बं०। तं तु० । सेसाओ पंचिंदियाो पसत्थाओ णियमा बंधदि संखेज्जदिभा० । थिरादितिषिणयुग० सिया० संखेज्जभागब्भः । एवं मणुसगदि०। २६२. देवगदि० जह हि०० पंचिंदि०-वेउवि०-तेजा-क०-पसत्थट्ठावीस २९०. तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क त्रसचतुष्क और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है,किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तिर्यश्चगत्यानुपूर्वीको मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २९१. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव औदारिक शरीर, औदारिक पालोपाक, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। शेष पञ्चेन्द्रियजाति आदि प्रशस्त प्रकृतियोंको नियमसे बाँधता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानु पूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २९२. देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर और प्रशस्त अट्ठाईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजधन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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