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________________ १३७ जहण्णसत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा अप्पसत्य-तस०४-अथिरादिछ०-णिमि० णि बं० संखेज्जग । वेउव्वि०-वेउवि० अंगो० णि बं० संखेजदिभागभहियं० । णिरयाणु णि. बं० । तं तु । एवं णिरयाणु०। ___ २८८. सेसाप्रो पगदीओ मूलोघं । णवरि जासिं पगदीणं असंखेंजगुणन्भहियं तासिं पगदीणं थिरभंगो कादव्यो । देवगदिचदुकं [संखेज्ज] गुणब्भहियं । जस० जहि बं० पंचिंदियभंगो। २८६. पंचिंदियतिरिक्खेसु३ सत्तएणं कम्माणं णिरयोघं । णिरयगदि० जहि.. बं० पंचिंदियजा०-वेउन्वि-तेजा०-क०--हुड०-वेउवि अंगो०-वएण०४-अगु०४अप्पसत्थ०-तस०४-अथिरादिछ०-णिमि. णि० बं० संखेन्जदिभागब्भहियं० । हिरयाणु० णि बं० । तं तु० । एवं णिरयाणु० । चतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अजधन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक आङ्गो. पाङ्गका नियमसे बन्धक होता है। जो नियमसे अजघन्य संख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है,किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २८८. शेष प्रकृतियोंका भङ्ग मूलोधके समान है। इतनी विशेषता है कि जिन प्रकतियोंका असंख्यातगुणा अधिक स्थितिबन्ध है, उन प्रकृतियोंका स्थिर प्रकृतिके समान भङ्ग जानना चाहिए । देवगतिचतुष्कका भङ्ग संख्यातगुणा अधिक कहना चाहिए | यशःकोतिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय जातिके समान है। २८९. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें सात कर्मोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। नरकगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, प्रसचतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक ह और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नरकगत्यानपर्वीको मख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। मूलप्रतौ पगदीणं जसगित्ति श्रासिं असंखे-इति पाठः। Jain Education Internatio For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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