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________________ ४४० महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे असंखेजगुणवडि-हाणी० णाणावर भंगो। सांदावे०-जस० णाणावभंगो। णवरि अवत्त० ज. उक्क० अंतो० । सेसाणं णिद्दादीणं अवत्त० णत्थि अंतरं । असादादिदस-आहारदुगं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्ठि० ज० ए०, उक्क० अंतो० । अवत्त० जह० उक्क० अंतो० । परिहारे धुविगाणं सेसाणं च भुजगारभंगो । एवं संजदासंजदे।। ९०५. असंजदे धुविगाणं मदि०भंगो। थीणगिद्धि०३-मिच्छ० अणंताणुबंधि०४इत्थि०-णवुस-पंचसंठा०-पंचसंघ०-अप्पसत्य-दृभग-दुस्सर-अणार्दै० णqसगभंगो। सादादिवारस मदिभंगो। पुरिस०-समचदु०-पसत्थ०-सुभग-सुस्सर-आदें. अवत्स० ज० अंतो०, उक्क० तेत्तीसं सा० देसू० । सेसाणं सादभंगो। चदुआयु०-वेउब्वियछ०मणुसगदिदुग-उच्चा० ओधं । तिरिक्खग०-तिरिक्खाणु०-उज्जो०-णीचा० णवूस०भंगो। ओरालि०-ओरालि० अंगो०-वञ्जरिस० ओघं । णवरि वञ्जरि० अवत्त० उक० तेत्तीसं सा० देसू ० । चदुजादिदंडओ पंचिंदियदंडओ णqसगभंगो । तित्थय० णवूस भंगो। १०६. तिण्णिले० धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणी० जह० एग०, उक. अंतो० । अवढि० ज० ए०, उ. चत्तारि सम । णिस्य-देवायु० दोपदा० णत्थि अंतरं । तिरिक्खअन्तर्महूर्त है । अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। इतनी विशेषता है कि तीनसंज्वलन और पुरुषवेदकी असंख्यातगणवृद्धि और असंख्यातगणहानिका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। सातावेदनीय और यशःकीर्तिका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। शेष निद्रा आदिकके अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। असाता आदि दस और आहारकद्विककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महूर्त है। अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंमें ध्वबन्धवाली और शेष प्रकृतियोंका भङ्ग भुजगारवन्धके समान है। इसी प्रकार संयसासंयत जीवोंके जानना चाहिये। ०५. असंयत जीवोंमें ध्रवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। स्त्यानगृद्धि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चार, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुभंग, दुस्वर और अनादेयका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है। साताआदिक वारह प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानी जीवोंके समान है। पुरुषवेद, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर और आदेयके अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। चार आयु, वैक्रियिक छह, मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्रका भङ्ग ओघ के समान है। तिर्यश्चगति, तिर्यश्चगत्या उद्योत और नीचगोत्रकामगनपुंसकवेदी जीवोंके समान है। औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गो पाङ्ग और वज्रऋषभनाराचसंहननका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि वनऋषभनाराच संहननके अवक्तव्य बन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । चार जातिदण्डक और पञ्चेन्द्रियदण्डकका भङ्ग नपुंसकवेदके समान है। तीर्थङ्कर प्रकतिका भङ्ग नपुसंकवेदके समान है। १०६. तीन लेश्यावाले जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है. 'और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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