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________________ वविबंधे अंतरं ४४२ मणुसायु० णिरयभंगो। दोगदि-पंचिंदि०-ओरालि०-ओरालि अंगो०-दोआणु०-पर०. उस्सा०-आदाव-तस-थावरादिचदुयुगलं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि० जह० एगछ, उक० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं । वेउवि०-वेउबि०अंगो० तिण्णिवड्डि-हाणि- अवढि० जह० एग०, उक्क० बावीसं सत्तारस सत्त सागरो० सादि० । अवत्त० किण्णाए जह० सत्तारससा० सादि०, उक्क० बावीसं सा० सादि० । णीलाए जह० सत्त साग० सादि०, उक्क० सत्तारस साग० सादि० । काऊए जह० दसवस्ससहस्सा० सादि०, उक्क० सत्तसाग० सादि० । तित्थय० तिण्णिवड्डि-हाणी० जह० एग०, उक्क० अंतो० । अवढि० जह० एग०, उक्क० बेसमयं । सेसाणं णिरयोघं । णवरि णील-काऊए मणुसग०-मणुसाणु०-उच्चा० पुरिसभंगो' । काऊए० तित्थय० अवत्त० णत्थि अंतरं ।। १०७. तेऊए धुविगाणं तिण्णिवड्डि-हाणी० जह० एग० उक्क० अंतो० । अवहि. जह० एग०, उक्क० बेसमयं । अट्ठक०-ओरालि-आहारदुग-तित्थय० धुविगाण भंगो। णवरि अवत्त० णत्थि अंतरं । देवायु० दोपदा णत्थि अंतरं । देवगदि०४ तिण्णिवड्डिहाणि-अवट्टि० जह० एग०, उक० बेसाग० सादि० । अवत्त० णत्थि अंतरं । थीणएक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। नरकायु और देवायुके दो पदोंका अन्तरकाल नहीं है। तिर्यश्चायु और गनुष्यायुका भङ्ग नारकियोंके समान है। दो गति, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, दो आनुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, त्रस और स्थावर आदि चार युगलकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकाङ्गोपाङ्गकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक बाईस सागर, साधिक सत्तरह सागर और साधिक सात सागर है। अवक्तव्य बन्धका कृष्णलेश्यामें जघन्य अन्तर साधिक सतरह सागर और उत्कृष्ट अन्तर साधिक बाईस सागर है । नीललेश्यामें जघन्य अन्तर साधिक सात सागर और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सतरह सागर है। कापोतलेश्यामें जघन्य अन्तर साधिक दसहजार वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात सागर है। तीर्थङ्कर प्रकृतिकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महर्त है। अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उस्कृष्ट अन्तर दो समय है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि नील और कापोत लेश्यामें मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका भङ्ग पुरुषवेदके समान है । कापोतलेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। ६०७. पीतलेश्यावाले जीवोंमें ध्रुववन्धवाली प्रकृतियोंकी तीन वृद्धि और तीन हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महूर्त है। अवस्थित वन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । पाठ कपाय, औदारिक शरीर, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ध्रुववन्धवाली प्रकृतियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। देवायुके दो पदोंका अन्तर काल नहीं है। देवगति चतुष्ककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक १ मूलप्रतौ-भंगो तित्थय. अवत्त० णत्थि अंतरं । काऊए० तेऊए इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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