SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 455
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाबंधे हिदिबंधाहियारे गिद्धि०३दंडओ साददंडओ इत्थिदंडओ पुरिसदंडोतिरिक्ख-मणुसायुग० सोधम्मभंगो। एवं पम्माए वि। णवरि ओरालि०-ओरालि० अंगो० अट्ठक० भंगो । सेसाणं सहस्सारभंगो। ६०८. सुक्काए पंचणा०अट्ठारसण्णं चत्तारिवाड्डि-हाणि-अवट्टि० जह० एग०, उक० अंतो० । असंखेंगुणहाणी० जह० उक्क० अंतो० । अवत्त० णत्थि अंतरं। थीणगिद्धि०३ दंडओ णवगेवजवभंगो। णिद्दा-पचला-भय-दु०-पंचिंदि०-तेजा०-क०-वण्ण०४अगु०४-तस०४-णिमि०-तित्थय० तिण्णिवड्डि-हाणि-अवट्ठि० जह• एग०, उक० अंतो० । अवत्त० णत्थि अतरं । साद०-जस० णाणावरणभंगो । णवरि अवत्त० जह० उन० अंतो० । असादादिदस-आहारदुगं तिण्णिवड्डि-हाणि-अवढि०-अवत्त० सादभंगो। णवारि आहारदुर्ग अवत्त० णत्थि अंतरं । अट्ठकसा०-मणुसग०-ओरालि०-ओरालि. अंगो०-वजरिस०-मणुसाणु० सादभंगो। णवरि अवढि० जह० एग०, उक० वेसम० । श्रवत्त० णत्थि अंतरं। पुरिस०-उच्चा० अवत्त० जह. अंतो०, उक्क० ऍक्कत्तीसं साल देसू० । सेसाणं णाणावरणभंगो। देवगदि०४ तिण्णियड्डि-हाणी-अवढि० जह० एग०, दो सागर है। अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है । स्त्यानगृद्धित्रिकदण्डक, सातावेदनीयदण्डक, स्त्रीवेदण्डक, पुरुषवेददण्डक, तिर्यञ्चायु और मनुष्यायुका भङ्ग सौर्धमकल्पके समान है। इसीप्रकार पद्मलेश्यावाले जीवों के भी जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि औदारिकशरीर और औदारिक अङ्गोपाङ्गका भङ्ग आठ कषायके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग सहस्रारकल्पके समान है। ६०८. शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें पाँच ज्ञानावरणादि अठारह प्रकृतियोंकी चार वृद्धि, चार हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ठ अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। स्त्यानगृद्धित्रिकदण्डकका भङ्ग नौ ग्रैवेयिकके समान है। निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, पश्चेन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रस चतुष्क, निर्माण और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तमहर्त है। प्रवक्तव्य बन्धका अन्तरकाल नहीं है। सातावेदनीय और यशःकीर्तिका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य बन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महूत है। असातावेदनीय आदि दस और आहारकद्विककी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य बन्धका भङ्ग सातावेदनीयके समान है। इतनी विशेषता कि आहारकद्विकके अवक्तव्य बन्धका अन्तरकाल नहीं है। आठ कपाय, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वनऋषभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वी का भङ्ग सातावेदनीयके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थित बन्धका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है। अबक्तव्य बन्धका अन्तर काल नहीं है। पुरुषवद और उच्चगात्रके अवक्तव्य बन्धका जघन्य अनार अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । शेप प्रकृतियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । देवगति चतुष्ककी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित बन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उस्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अवक्तव्य बन्धका जघन्य अन्तर साधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy