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________________ ३०६ महाबंधे टिदिबंधाहियारे अजस० ज०ट्टि. विसे० । यहि विसे० । मणुसग -पोरालिय० ज०हि. विसे० । यट्टि० विसे । इत्थि० जट्टि विसे० । यहि विसे । णवूस० ज हि विसे । यहि विसे० । णीचा. जढि० विसे । यहि विसे० । तिरिक्वग० ज०ट्टि. विसे । यहि० विसे । णिरयग० ज०हि. विसे । यहि विसे । पंचणा०णवदंसणा०-सादा-पंचंत० ज.हि. विसे । यहि विसे० । असादा. ज.हि. विसे । यहि विसे० । सोलसक० ज.हि. विसे । यहि विसे० । मिच्छ. जहि विसे । यहि विसे । ६६३. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तगेसु पढमपुढविभंगो । एवं सव्वअप्पजत्तगाणं सव्वविगलिंदिय-पुढवि०--आउ०-वणप्फदि०--बादरवणप्फदिपत्तेय-सव्वणियोदाणं पंचिंदिय-तसअपज्जत्ताणं च । एइंदिएसु तिरिक्खोघं । ६६४. तेउ०-वाउ० सव्वत्थोवा तिरिक्वायुः जहि । यहि० विसे० । पंचपोक०--तिरिक्खग०--तिएिणसरीर--जस-णीचा. ज.हि. असंखेंज । यहि विसे । अरदि-सोग-अजस० जहि विसे० । यहि विसे० । उवरि अपज्जत्तभंगो। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयशःकीर्ति का जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मनुष्यगति और औदारिक शरीरका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकघेदका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यश्चगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नरकगतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे सोलह कषायका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।। ६६३. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में पहली पृथ्वीके समान भङ्ग है। इसी प्रकार सब अपर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक, बादरवनस्पतिकायिक, सब निगोद, पञ्चन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए । एकेन्द्रियोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भङ्ग है। ६६४. अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों में तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिवन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकषाय, तिर्यञ्चगति, शरीर. यशःकीर्ति और नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयश-कीर्तिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे ऊपर अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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