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________________ उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा १८८.आहार-आहारमि० आभिणिबोधि० उक्क हिदिवं० चदुणा०-छदंसणा०. असादा०-चदुसंजल०-पुरिस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-देवगदि-पंचिंदि०-वेउचि०तेजा-क०-समचदु०-वेउव्वि०अंगो०-वएण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थवि०-तस०४अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदे०-अजस०-णिमि०-उच्चा०-पंचंत० णिय० बं० । तं तु । तित्थय० सिया० । तं तु० । एवमेदारो ऍक्कमेक्कस्स । तं तु०। १८६. सादावे० उक्क हिदिवं० हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस० सिया० । तं तु० । अरदि-सोग-अथिर-असुभ-अजस-तित्थय सिया० संखेज्जदिभागू० । सेसा. धुविगाओ णि० बं० संखेजदिभागू० । १६०. देवायु० ओघं । एवं तं तु० सादभंगो । १८८. आहारक काययोगी और आहारक मिश्र काययोगी जीवोंमें आभिनिबोधिक शानावरणकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, असातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुष वेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, श्रादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इस प्रकार इन प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु ऐसी अवस्थामें यह उत्कृष्ट स्थितिका भो बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यनसे लेकर पल्यका असख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका वन्धक होता है। १८६. सातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यशाकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी वन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयशःकीर्ति और तीर्थङ्कर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। शेष ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। १६०. देवायुकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है। इस प्रकार यहाँ जितनी 'तं तु' पदवाली प्रकृतियाँ हैं उनका भङ्ग साता चेदनीयके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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