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________________ जहण्णसत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा ११७ दियसरिण-अपज्जत्त. एदारो दुवे पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरो. ओसकि. 'मुहुम-पज्जत्त-साधाराण. एदारो तिएिण पगदीओ एकदो बंधवोंच्छेदो । तदो सागरो० अोसक्कि० सुहुम पज्जत्त-पत्तेय. संजुत्तानो एदारो तिएिण पगदीनो ऍक्कदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० ओसक्कि० बादर-पज्जत्त-साधारणसंजुत्तानो एदाओ तिगिण पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० अोसकि० बादरएइंदि०-आदाव-थावर-पज्जत्त-पत्तेय. संजुत्ताओ एदाओं पंच पगदीयो ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० ओसक्कि० बीइंदिय-पज्जत्त० संजुत्तानो एदाओ दुवे पगदीओ ऍकदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० ओसकि० तीइंदिय-पज्जत्त. संजुत्ताओ एदारो दुवे पगदीओ बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० अोसकि चदुर्ति दियपज्जत्त० संजुत्ताओ एदारो दुवे पगदीयो० बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० ओसक्कि० पंचिंदि०असएिण-पज्जत्त० संजुत्ताओ एदोओ दुवे पगदीओ ऍकदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० अोसक्कि तिरिक्खगदि-तिरिक्वाणु०उज्जो० संजुत्तानो एदारो तिषिण पगदीओ ऍक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० अोसक्कि० णीचा० बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० ओसक्कि० अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर-अणादे० एदाओ चदुपगदीश्रो ऍक्कदो सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर पञ्चेन्द्रिय संझी और अपर्याप्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्ध व्यच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर सूक्ष्म. पर्याप्त और साधारण इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर सूक्ष्म, पर्याप्त और प्रत्येक संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर बादर, पर्याप्त और साधारण संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर बादर एकेन्द्रिय, आतप, स्थावर, पर्याप्त और प्रत्येक संयुक्त इन पाँच प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर द्वीन्द्रिय जाति और पर्याप्त संयुक्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर त्रीन्द्रिय जाति और पर्याप्त संयुक्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर चतुरिन्द्रिय जाति और पर्याप्त संयुक्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्यच्छित्ति होती है। इससे सौ सागरपृथक्त्वका अपसरण होकर पञ्चन्द्रिय असंही और पर्याप्त संयुक्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योत संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । इससे सौ सागरपृथक्त्वकाअपसरण होकर नीचगोत्रकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय इन चार प्रकृतियों की एक साथ १. मूलप्रतौ सुहुम अपजत्त इति पाठः । २. मूलप्रतौ बादर अपजत्त इति पाठः । ३. मूलप्रती एदाश्रो दो पगदीनो इति पादः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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