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________________ ११६ महाबंधे द्विदिवंधाहियारे सिद्धिया० पायोग्गं अंतोकोडाकोडिपुषत्तं बंधमाणस्स णत्थि हिदिबंधवॉच्छेदो । अंतोसागरोवमकोडाकोडीए अद्धटिदिबंधहायं बंधमाणो पि ण बंधदि । तदो सागरोवमसदपुधत्तं अोसरिदूण णिरयायुबंधो औच्छिज्जदि। तदो सागरोवम० प्रोसक्कि० तिरिक्खायुबंधवोच्छेदो। तदो सागरोवमा अोसकि. मणुसायु० बंधवोच्छेदो। तदो सागरोवम० ओसकि. देवायु० बंधवोच्छेदो। तदो सागरोवम० ओसक्कि० णिरयगदि-णिरयाणुपु० एदारो दुवे पगदीओ ऍक्कदो बंधवॉच्छेदो । तदो सागरोवम० ओसकि० सुहुम-अपज्जत्त-साधारण. संजुत्तानो एदाओ तिषण पगदीओ एकदो बंधवाँच्छेदो । तदो सागरो० अोसक्कि० सुहुम-अपज्जत्त-पत्तेय. संजुत्ताप्रो तिएिण पगदीओ ऍक्कदो बंधवाँच्छेदो। तदो सागरो० ओसक्कि० बादर-अपज्जत्तसाधारणं संजुत्ताओ एदारो तिएिण पगदीओ ऍक्कदो बंधवाँच्छेदो। तदो सागरो० ओसक्कि० बादर-अपज्जत्त-पत्तेय. संजुत्ताओ एदारो तिएिण पगदीओ ऍकदो बंधवोंच्छेदो। तदो सागरो० ओसक्कि० बीइंदि०-अपज्जत्त० एदारो दुवे पगदीओ एक्कदो बंधवाच्छेदो । तदो सागरो० अोसक्कि० तीइंदि०-अपजत्त० एदारो दुवे पगदीनो एक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० ओसक्कि० चदुरिंदि०-अपज्जत्त० एदाओ दुवे पगदीओ एकदो बंधवोच्छेदो। तदो सागरो० ओसक्कि० पंचिंदियअसएिणअपज्जत्त० एदाओ दुवे पगदीनो एक्कदो बंधवोच्छेदो । तदो सागरो० ओसकि० पंचिंअभब्योंके योग्य अन्तःकोड़ाकोड़ी पृथक्त्व प्रमाण स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके स्थितिकी बन्ध व्युच्छित्ति नहीं होती। अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरके आधे स्थिति बन्ध स्थानका बन्ध करनेवाला भी नहीं बाँधता । पुनः इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होनेपर नरकायुकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होने पर तियंञ्चायुको बन्ध-व्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होनेपर मनुष्यायुकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर देवायुकी बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर नरकगति और नरकगत्यानुपूर्वी इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धन्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर सूक्ष्म, अपर्याप्त और प्रत्येक संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर बादर, अपर्याप्त और साधारण संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है । इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर बादर अपर्याप्त और प्रत्येक संयुक्त इन तीन प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर द्वीन्द्रिय जाति और अपर्याप्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर त्रीन्द्रिय जाति और अपर्याप्त इन दो प्रकृतियों की एक साथ बन्धव्युच्छिंत्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर चतुरिन्द्रिय जाति और अपर्याप्त इन दो प्रकृतियोंकी एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ सागर पृथक्त्वका अपसरण होकर पञ्चेन्द्रिय असंज्ञी और अपर्याप्त इन दो प्रकृतियों की एक साथ बन्धव्युच्छित्ति होती है। इससे सौ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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