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________________ जहण्णसत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा २३२. देवगदि० उ०हि०० पंचणा-णवदंसणा-मिच्छ०-सोलसक०-भयदुगु-पंचिंदि. याव णिमिण त्ति पंचंत० णि० ब० संखेज्जदिभागू० । सादासाद०इत्थिवे०-हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुभासुभ-जस-अजस० सिया संखेज्जदिभागू० । पुरिस. सिया० । तं तु । समचदु०-देवाणु०-पसत्थवि -सुभग-सुस्सरआदेज्ज-उच्चा० णि० बं० । तं० तु०। विउवि.] वेउव्विअंगो० णि० बं० संखेज्जदिभागः । एवं देवाणु०। ओरालि०-ओरालि अंगो०-असंपत्त० अपज्जत्तभंगो । आदाउज्जो०-थिर-सुभ-जस० अपज्जत्तभंगो। २३३. आहार० मूलोघं । अणाहार० कम्मइगभंगो । एवं उक्कस्सपरत्थाणसएिणयासो समत्तो । २३४. जहएणए पगदं। एत्तो जहएणपदसएिणयाससाधणहूँ अपदभूद-- समासलक्षणं वत्तइस्सामो । तं जहा-पंचिंदियाणं सरणीणं मिच्छादिहीणं अब्मव २३२. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चेन्द्रिय जातिसे लेकर निर्माण तक और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवा भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। साता वेदनीय, असाता वेदनीय, स्त्रीवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयशाकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। पुरुषवेदका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यहि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । समचतुरस्र संस्थान, देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और उच्चगोत्र इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तकस्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुकृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार देवगत्यानुपूर्वीको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। औदारिक शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग और असम्प्राप्तासृपाटिका संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अपर्याप्तके समान है। तथा आतप, अद्योत, स्थिर, शुभ और यशःकर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष अपर्याप्तके समान है। २३३. आहारक जीवों में अपनी प्रकृतियोंका सन्निकर्ष मूलोधके समान है और अनाहारक जीवों में कार्मण काययोगी जीवोंके समान है। इस प्रकार उत्कृष्ट परस्थान सन्निकर्ष समाप्त हुआ। २३४. जघन्य सन्निकर्षका प्रकरण है। इस कारण जघन्य पद सन्निकर्षकी सिद्धि करने के लिये अर्थपदभूत समास लक्षण कहते हैं। यथा-पञ्चेन्द्रिय संशी मिथ्यादृष्टि जीवों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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