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________________ ११४ महाबंधेटिदिबंधाहियारे आदे-उच्चा० । वरि उच्चागोदे तिरिक्खगदितिगं वज्ज । २३०. दोएहं आयुगाणं तिरिक्खगदीए । णवरि संखेज्जदिभाग० । णिरयायुग० उ०छि बं० याओ पगदीओ बंधदि तारो पगदीनो तं तु विहाणपदिदं बंधदि, असंखेज्जदिभागहीणं वा संखेज्जदिभागहीणं वा। देवायु० उ०हिबं० यथा तिरिक्खगदीए। वरि पंचणा०-गवदंसणा०-सादावे०-मिच्छ०-सोलसक०-पुरिसहस्स-रदि-भय-दु०-देवगदि-पसत्थवावीस-उच्चा०-पंचंत० णि० बं० संखेज्जदिभाग० । २३१. तिरिक्खगदि० उ०हि०बं० पंचणा०-गवदंसणा०-असादा०-मिच्छ०सोलसक०-गवुस०-अरदि-सोग-भय-दुगु-तेजा--क०-हुंडसं-वएण०४-अगु०-- उप०-अथिरादिपंच-णिमि०-णीचा०-पंचंत० णि० बं० संखेज्जदिभाग० । एइंदि० ओरालि-तिरिक्खाणु०-थावर-मुहुम-अपज्जत्त-साधार०णि बं० । तं तु । एदासिं तं तु० पदिदाणं सरिसो भंगो कादव्यो । मणुसगदिदुगं यथा अपज्जत्तभंगो। बाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रकी मुख्यतासे समझना चाहिए। इतनो विशेषता है कि उच्चगोत्रमें तिर्यश्चगतित्रिकको छोड़कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। २३०. दो आयुओंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष तिर्यश्चगतिके साथ कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि संख्यातवाँ भाग न्यून कहना चाहिए । नरकायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव जिन प्रकृतियोंको बाँधता है उन प्रकृतियोंको वह दो स्थान पतित बाँधता है। या तो असंख्यातवाँ भाग हीन बाँधता है या संख्यातवाँ भाग हीन बांधता है। देवायुकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव तिर्यश्चगतिमें कहे गये सन्निकर्षके समान सन्निकर्षको प्राप्त होता है। इतनी विशेषता है कि पाँच शानावरण, नौ दर्शनावरण, सातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति प्रभृति अट्ठाईस प्रशस्त प्रकृतियाँ, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। २३१. तिर्यञ्चगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असाता वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, अस्थिर आदि पाँच, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तराय इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इनका नियमसे बन्धक होता है जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। यहाँ इन 'तं तु' पतित प्रकृतियोंका एक समान भङ्ग करना चाहिए । तथा मनुष्यगति द्विककी मुख्यतासे सन्निकर्ष अपर्याप्तके समान है। १-मूलप्रतौ तिगं च दोएह इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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