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________________ ३०४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे ६६०. विदियादि याव छहि ति सव्वत्थोवा दोआयु० जाहि० । यहि विसे । पंचणोक०--मणुसग०--तिएिणसरीर--जसगि०--उच्चा० ज०ट्टि० असंखेज्ज० । यहि० विसे । अरदि-सोग-अजस० ज हि विसे । यहि विसे । पंचणा० छदसणासादा० -पंचंत० ज.हि. विसे । यहि विसे० । असादा० ज हि विसे० । यहि० विसे० । बारसक० ज०ट्टि० विसे० । यहि विसे । थीणगिद्धि०३ जलट्ठि० संखेज्ज०। यहि विसे० । अखंताणुबंधि०४ ज.टि. विसे० । यहि विसे० । मिच्छ० जहि विसे० । यहि विसे । इत्थि० ज०ढि० संखेंज । यहि विसे । णवुस० ज०हि. विसे । यहि विसे । णीचा. ज.हि. विसे०। यहि विसे । तिरिक्खग० ज हि० विसे० । यहि० विसे । सत्तमाए पुढवीए एसेव भंगो । णवरि सव्वत्थोवा तिरिक्वायु० ज०हि० । यहि विसे । एवं याव बारसकसा० ज०४ि० विसे । यहि विसे । तिरिक्खगदि-णीचा० ज०ट्टि संखेंज । यहि. विसे० । थीणगिद्धि ३ ज०हि० विसे० । यहि विसे० । अणंताणुबंधि०४ ज.हि. विसे । ६६०. दूसरीसे लेकर छटवीं तक दो आयुओंका जघन्य स्थितिवन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच नोकपाय, मनुष्यगति, तीन शरीर, यशःकोर्ति और उच्चगोत्रका जघन्य स्थितिवन्ध असंख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अरति, शोक और अयशाकोतिका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शना. वरण, सातावेदनीय और पाँच अन्तरायका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे असातावेदनीयका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे बारह कषायका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है । इससे स्त्यानगृद्धि तीनका जघन्य स्थितिवन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे अनन्तानुवन्धीचारका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है । इससे नीचगोत्रका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यञ्चगतिका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। सातवीं पृथिवीमें यही भङ्ग है। इननी विशेषता है कि तिर्यञ्चायुका जघन्य स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इसी प्रकार बारह कपाय तक जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यस्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे तिर्यश्चगति और नीचगोत्रका जघन्य स्थितिबन्ध संख्यातगुणा है । इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे स्त्यानगृद्धि तीनका जघन्य स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिबन्ध विशेष अधिक है। इससे अनन्तानुबन्धी चारका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे यत्स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिवन्ध विशेष अधिक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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