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________________ जहएणसत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा २८१. सत्तमाए छपगदीअो विदियपुढविभंगो। २८२. तिरिक्वग० जहिवं. पंचिंदि०-ओरालि --तेजा०-का-समचदु०ओरालि अंगो०-वजरिस०-चएण०४--अगु०४--पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णि० व० संखेजगु० । तिरिक्रवाणु णि बं। तं तु । उज्जो सिया० । तं तु०। एवं तिरिक्रवाणु-उज्जो । मणुसगदिआदि० ज०हिबं० सम्मादिद्विपाओग्गाओ विदियपुढविभंगो। २८३. एग्गोद० जहिबं० तिरिक्खगदि-पंचिदि०-ओरालि-तेजा०-कओरालि०अंगो०-वएण०४--तिरिक्खाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४--सुभग-सुस्सरआदे-णिमि० णि० ब० संखेंज्जगु० । वज्जरिस०-उज्जो०-थिराथिर-सुमासुभ-जस० अजस० सिया० संखेज्जदिगु० । पंचसंठा-पंचसंघ०-अप्पसत्थ०-दूभग-दुस्सर लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अशुभ और अयश-कीर्तिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार छठी पृथिवी तक जानना चाहिए। २८१. सातवीं पृथिवीमें छह प्रकृतियोंका भङ्ग दूसरी पृथिवीके समान है। . २८२. तिर्यञ्च गतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर. तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराच संहनन. वर्ण चतुष्क, अगुरुलघ चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यागुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्यगति आदिकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके सम्यग्दृष्टि प्रायोग्य प्रकृतियोंका भङ्ग दूसरी पृथिवीके समान है। २८३. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तिर्यञ्च गति, पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतष्क, तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी, गुरुलघ चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, प्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। वज्रर्षभनाराच संहनन, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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