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________________ १३४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे लि०अंगो०-वएण०४--मणुसाणु-अगु०४-पसत्थ--तस०४-सुभग-सुस्सर--प्रादे०णिमि० णि. बं० संखेज्जदिगुण । वज्जरि-थिराथिर-सुभासुभ-जस-अजस० सिया० संखेज्जदिगुण । वज्जणारा० सिया० । तं तु । एवं बज्जणारायणं । २७६. चदुसंठा०-चदुसंघ० जहि०बं० धुविगाओ मणुसगदीए सह बग्गोदभंगो । यात्रो सम्मादिहिस्स जहरिणगाओ ताओ सिया० णग्गोदभंगो। यात्रो मिच्छादिहिस्स जह पाओग्गाश्रो तारो सिया० संखेज्जभागब्भहियं । एवं अप्पसत्थ०-दभग-दस्सर-अणादे०। २८०. अथिर० जहटिबं० मणुसगदि सह गदाओ णियमा बं० संखेंजभागब्भहियं० । सुभ-जसगित्ति-तित्थय० सिया० संखेंजभागब्भहियं० । असुभअजस० सिया० । तं तु० । एवं असुभ-अजसगित्ति । एवं याव छहि त्ति । चतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, प्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणो अधिक स्थितिका बन्धक होता है। वज्रर्षभनाराच संहनन, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यश-कीर्ति और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । वज्रनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है। किन्तु वह जधन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वज्रनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २७२. चार संस्थान और चार संहननकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवके ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका भङ्ग मनुष्यगतिके साथ न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानके समान है। जो प्रकृतियों सम्यग्दृष्टिके जघन्य स्थितिबन्धवाली हैं वे कदाचित् बन्धवाली हैं। तथा इनका भङ्ग न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानके समान है और जो मिथ्यादृष्टिके जघन्य स्थिति बन्धके योग्य हैं उनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेयकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। __ २८०. अस्थिर प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मनुष्यगतिके साथ बन्धको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शुभ, यश-कीर्ति और तीर्थङ्कर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। अशुभ और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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