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________________ जहण्णसत्थाणबंध सरिणयासपरूवणा १५५ 1 णिभि० णि० बं० संखेज्जगु० । हुंड० - अप्पसत्थ० अथिरादिछ० णि० बं० संखेज्जभाग० । गिरयाणु० णि० बं० । तं तु० । एवं गिरयाणु० । तिरिक्खगदि ० ज० द्वि० बं० पंचिंदि० - तेजा ० क० समचदु० - वरण ०४ - गु०४ - पसत्थवि ० -तस० ४- थिरादिछ० - रिणमि० रि० संखेज्जगु० । ओरालि० अंगो० वज्जरि० - तिरिक्खाणु० णि०० | तं तु० । उज्जो० सिया० । तं तु । एवं तिरिक्खाणु ० -उज्जो० । ३२८. मणुसग० ज० द्वि० बं० ओरालि० - ओरालि० अंगो० - वज्जरि० - मणुसाणु ० रिण० बं० । तं तु ० | सेसं तिरिक्खगदिभंगो। एवं ओरालि० ओरालि ० चंगो० वज्जरि ०. O नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । हुण्डसंस्थान, अप्रशस्तविहायोगति और अस्थिर आदि छह इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातवीं भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसीप्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है, किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बंन्धक होता है । यदि जघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसीप्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३२८. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव श्रदारिक शरीर, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और श्रजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है । शेष प्रकृतियोंका भङ्ग तिर्यञ्चगतिके समान है । इसीप्रकार औदारिक शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराचसंहनन और मनुष्यगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि श्रदारिक शरीर, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो गति, दो आनुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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