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________________ उक्कस्सपरत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा १४७ ३१३. एग्गोद०ज० ट्ठि० बं० पंचिंदि० ओरालि० - तेजा ० क ०-ओरालि० अंगो०वरण ०४- अगु०४ - पसत्थ०-तस० ४- सुभग-मुस्सर आदे० - णिमि० णि० बं० संखेज्जगुणन्भहियं । तिरिक्खगदि - मणुसगदि वज्जरिस० - दोश्राणु ० उज्जा ० थिराथिर-सुभासुभ-अस० सिया० संखेज्जगु० । जस० सिया० असंखेज्जगु० । वज्जणारा ० सिया० तं तु ० । एवं वज्जणारायणं । एवं चेव सादिय० । वरि णारायण० सिया ० तं तु० । वज्जणारा० सिया० संखेज्जभाग० । एवं पारा० । ३१४. खुज्जसं ० ज० द्वि० बं० गोद० भंगो । वरि वज्जणारा० संखेज्जभाग० । अद्धणारा० सिया० । तं तु० । एवं श्रद्धणारा० । एवं चेव ३१३. न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और यशःकीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य श्रसंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । वज्रनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार वज्रनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार स्वाति संस्थानको मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि नाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । वज्रनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अर्द्धनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३१४. कुब्जक संस्थानकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवका भङ्ग न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानके समान है । इतनी विशेषता है कि वज्रनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे जघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। अर्धनाराच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् श्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार अर्धनाराच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा इसी प्रकार वामन For Private & Personal Use Only Jain Education International 7 www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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