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________________ १४८ महाबंधे दिदिबंधाहियारे वामणसंठा० । णवरि बज्जणारा-पाराय०-अद्धणाराय० सिया० बं. संखेज्जभाग० । खीलिय० सिया० ब०। तं तु०। एवं खीलिय। हुड० ज हि०६० णग्गोदभंगो । णवरि चदुसंघ० सिया०० संखेज्जभाग०। असंपत्त० सिया० । तं तु । जस० सिया० असंखेज्जगु० । एवं असंपत्त०। ___३१५. अप्पसत्थ० जहिबं० पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा--क०--ओरालि. अंगो०-वरण०४-अगु०४-तस०४-णिमि० णि• बं० संखेज्जगु० । तिरिक्खगदिमणुसगदि०-समचदु०-बज्जरिस०-दोआणु-उज्जो -थिरादि०४-सुभग-सुस्सर--प्रादे अजस० सिया० संखेज्जगु० । पंचसंठा०-पंचसंघ० सिया० संखेजभा० । भग संस्थानकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वज्रनाराच नन, नाराच संहनन और अर्ध नाराच संहननका कदाचित बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। कीलक संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार कीलकसंहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । हुण्ड संस्थानकी जघन्य स्थितिके बन्धक जीवका सन्निकर्ष न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानके समान है। इतनी विशेषता है कि चार संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। असम्प्राप्तासृपाटिका संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। यश:कीतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक हाता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार असम्प्राप्तासृपाटिका संहननको मुख्यताले सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३१५. अप्रशस्त विहायोगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यश्चगति, मनुष्यगति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर आदि चार, सुभग, सुस्वर, श्रादेय और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक कहोता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। पांच संस्थान और पाँच संहननका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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