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________________ १३२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे पुरिस०-हस्स-रदि-भय-दुगु णिव० संखेज्जगु० । एवं अणंताणुबंधि०४ । २७३. अपच्चक्खाणकोध जट्टि०० एकारसकसा-पुरिस -हस्स-रदिभय-दुगु णि बं० । तंतु० । एवमेदाओ० तं तु० पदिदाओ एकमेक्कस्स । तं तु । २७४. इत्थिवे. जहिबं० मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु० णि बं० संखेज्जगु०। हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया० संखेज्जगु० । एवं गर्बुस०। २७५. अरदि० ज०हिब. बारसक-पुरिस-भय-दुगु जि. बं० संखेजभाग० । सोग णि• बं० । तं तु० । एवं सोग। २७६. तिरिक्खगदि. जहहिदिबं० पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा०-क-ओरालि०अंगो०-वएण०४-अगु०४-तस०४-णि[णि.]बं० संखेजगु० । समचदु०-वजरि०नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २७३. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव ग्यारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार 'तं तु' रूपसे प्राप्त इन सब प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजधन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। २७४. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । २७५. अरतिको जघन्य स्थितिका बन्धक जीव बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवां भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । शोकका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्य का असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शोककी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। २७६. तिर्यश्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, त्रसचतुष्क और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। समचतुरस्र संस्थान, वज्रर्षभनाराच संहनन, प्रशस्त विहायोगति, स्थिर आदि तीन युगल, सुभग, सुस्वर और आदेय इनका कदाचित् बन्धक होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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