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________________ जहण्णसत्थाणबंध सण्णियासपरूवणा चदु० - ओरालि० अंगो० - वज्जरिस०-वरण ०४ - मणुसा०-- गु०४ - पसत्थ०--तस०४frरादि६० - मि० रिण० वं संखेज्जगुण ० । २६६. गोदं वेदणीयभंगो | अंतराइगाणं णाणावरणीयभंगो | एवं पढ़मपुढवीए । १३१ २७० विदियाए लाखावरणी० - वेदणी० आयु-गोद ० अंतरागाणं पिरयोघं । गिहारिणाए जοद्वि०० पचलापचला थीए गिद्धि० णि० बं० । तं तु० । छदंस० शि० वं० संखेज्जगु० । एवं पचलापचला थी गिद्धि० । २७१. गिद्दा० जह० द्वि०चं० पंचदंस० शि० बं० । तं तु० । एवमेदाओ ऍकमेस्स । तं तु ० । २७२. मिच्छ० जह० द्वि० बं० श्रताणुबंधि०४ ०ि बं० । तं तु । वारस क० प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो निर्ममसे अजघन्य संख्यातगुणा अधिक स्थितिका वन्धक होता है । २६९. गोत्रकर्मका भङ्ग वेदनीयके समान है और अन्तरायकी प्रकृतियोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । इसी प्रकार प्रथम पृथिवीमें जानना चाहिए । २७०. दूसरी पृथिवीमें ज्ञानावरण, वेदनीय, आयु, गोत्र और अन्तराय कर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है । निद्रानिद्राकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि इनका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। छह दर्शनावरणका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । २७१. निद्राकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पाँच दर्शनावरणका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा जघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवीं भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो वह नियमसे जघन्य की अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिक से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । २७२. मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव अनन्तानुबन्धी चारका नियमसे बन्धक होता है । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातव भाग अधिक तक स्थिति का बन्धक होता है । बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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