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________________ १३० महाबंधे टिदिबंधाहियारे ठाणं छस्संघडणं दोविहा. थिरादिछयुगलं सिया० संखेन्जदिभागब्भ । तिरिक्खाणु० णि बं० । तं तु० । उज्जो सिया । तं तु० । एवं तिरिक्वाणु०--उज्जो०। २६६. मणुसगदि० ज०हिबंपंचिंदि०-ओरालि-तेजा-क०-समचदु०ओरालि अंगो०-चजरिस०-वएण०४-मणुसाणु -अगु०४-पसत्थ०--तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णि. बं० । तं तु० । एवमेदारो ऍकमेक्कस्स । तं तु । २६७. पंचसंठा-पंचसंघ-अप्पसत्थ अोघं । णवरि णियमा मणुसगदिसंजुत्ताओ कादव्वाअो । तासु सेसाओ संखेजदिभागब्महि । २६८. तित्थय० जहिबं० मणुसगदि-पंचिंदि०-ओरालि०--तेजा-क- सम यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वोका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजधन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार तिर्यश्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ___ २६६. मनुष्यगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसवतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक सम अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्ध होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असं. ख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। २६७. पाँच संस्थान, पाँच संहनन और अप्रशस्त विहायोगति इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनको नियमसे मनुष्यगति संयुक्त करना चाहिए । तथा इनमें शेष प्रकृतियोंका अजघन्य स्थितिबन्ध होता है जो संख्यातवाँ भाग अधिक होता है। २६८. तीर्थङ्कर प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मनुष्यगति, पश्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वो, भगुरुलघु चतुष्क, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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