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________________ जहण्णसत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा १२९ ते तु० जह० अज० समजुत्तरमादि कादूण पलिदोवमस्स असंखेज्जभागब्भहियं बं० । एवमेदाओ ऍक्कमेक्कस्स । तं तु । २६३. इत्थि० जह०हिबंधतो मिच्छ०-सोलसक०--भय-दुगु णिय० बं० तं तु संखेंज्जदिभागब्भहियं० । हस्स-रदि-अरदि-सोग सिया० संखेंजदिभागब्भहियं । एवं पवुस । २६४. अरदि० जह-ट्टि बं० मिच्छ०-सोलसक०-पुरिसवे-भय-दुगुणि बं० संखेंज्जदिभागभहियं । सोग० णि० बं० । तं तु । एवं सोग० । आयुगाणं उक्कस्सभंगो। २६५. तिरिक्खगदि० जहि०० पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क०-ओरालि०अंगो०-वएण०४-अगु०४-तस०४-णिमि० णि बं० संखेज्जदिभागब्भहियं० । छस्सं रति, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए । किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भो बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। २६३. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। हास्य, रति, अरति और शोक इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य संख्याता भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २६४. अरतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुष वेद, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। शोकका नियमसे बन्धक होता है। किन्तु वह जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य, एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। आयुओंकी अपेक्षा भङ्ग उत्कृष्टके समान है। २६५. तिर्यश्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रस चतुष्क, और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवा' भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति, और स्थिर आदि छह युगल इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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