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________________ जहण सत्थाणबंध सण्णियासपरूवणा १२१ २४४. पिरयगदि० ज० द्वि०बं० पंचिदि० - तेजा० क ० हुंड० वरण ०४ - अगु० ४- सत्थवि०-तस० ४ - अथिरादिछ० - णि० णि० बं० संखेज्जगुण भहियं बं० । वेव्वि० - वेडव्त्रि ० गो० णि० बं० संखेज्जभागन्भहियं । पिरयाणु० ०ि बं० । तं तु । एवं णिरयाणु० । २४५. तिरिक्खग० ज० द्वि० बं० पंचिंदि० ओरालिय० - तेजा० - कं० - समचदु०ओरालि० अंगो० - वज्जरि० ए० ४ -तिरिक्खाणु० गु०४-पसत्थवि ०-तस०४-थिरादिपंच णिमि० णि० बं० । तं तु० । उज्जो० सिया० । तं तु० । जसगि० णि० बं० संखैज्जगुणन्भहियं । एवं तिरिक्खाणु० उज्जो० । २४६. मणुसग० ज० ठ्ठि० बं० पंचिदि० ओरालि० - तेजा०--क०-० - समचदु०ओरालि० अंगो० वज्जरि ० वरण ०४- मणुसागु० - अगु० ४- पसत्थ० -तस० ४ - थिरादिपंच २४४. नरकगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, स चतुष्क, अस्थिर आदि छह और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे जघन्य संख्यात गुणा अधिक स्थितिका बन्धक होता है । वैकियिक शरीर और वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। नरकगत्यानुपूर्वीका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार नरकगत्यानुपूर्वीकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । २४५. तिर्यञ्चगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, श्रदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराच संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है। जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि श्रजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा श्रजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । यशःकीर्तिका नियम से बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणा अधिक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए | २४६. मनुष्य गतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, श्रदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, श्रदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभ नाराच संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, स १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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