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________________ १२२ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे णिमि० णि. बं० । तं तु । जसगि० णि. वं. असंखेजदिगुणभहियं बं० । एवं मणुसाणु । २४७. देवगदि० ज०ठिबं० पंचिंदि०-तेजा०- क-समचदु०-वएण०४अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिपंच-णिमि० णि० ० संखेजगुणब्भहियं बं० । वेउव्वि-वेउवि अंगो०-देवाणु० णि• बं० । तं तु० । जसगि० सिया० असंखेंजगुणन्भहियं बं० । एवं वेउव्वि०अंगो०-देवाणु । २४८. एइंदि० जटिबं० तिरिक्खग-ओरालि०-तेजा. क-हुड०वण्ण०४-तिरिक्वाणु०-अगु०४--बादर-पज्जत्त--पत्ते-भग-अणादें--णिमि० णि. असंखेज्जदिभागब्भहियं० । आदावं सिया० । तं तु० । उज्जो --थिराथिर-सुभासुभ चतुष्क, स्थिर आदि पोंच, और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थिति का भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। यश-कीर्तिका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार मनुष्यगत्यानुपूर्वीको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २४७. देवगतिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी इनका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थिति का भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । यशाकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वीको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २४८. एकेन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिका वन्धक जीव तिर्यञ्चगति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, दुर्भग, अनादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है । आतपका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयश कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवों भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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