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________________ जहण्णत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा १२३ अजस• सिया० असंखेजदिभागब्भहियं । थावर० णि. बं० । तं तु० । जसगि० सिया० असंखेजदिगुणब्भहियं० । एवं आदाव-थावर० । २४६. बीइंदि० जह हि०० तिरिक्वगदि-ओरालिय-तेजा०-क०-हुडओरालि अंगो०-असंपत्त-वएण०४-तिरिक्वाणु-अगु०४-अप्पसत्थ-तस०४--दूभगदुस्सर-अणादे-णिमि०णि ० असंखेंजदिभागब्भहियं । उज्जो सिया। थिराथिर-सुभासुभ-अजस सिया. असंखेंजदिभागब्भहियं । जस. सिया० असंखेंजदिगु० । एवं तीइंदि०-चदुरिंदि०। २५०. पंचिंदि० जहि०बं० ओरालि०तेजा० --क०--समचदु०--ओरालि. अंगो०-वजरिस०-वएण०४-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिपंच-णिमि० णि बं० । अधिक स्थितिका बन्धक होता है । स्थावरका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका वन्धक होता है। यश-कीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार आतप और स्थावर प्रकृतियों की मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २४९. द्वीन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव तिर्यश्चगति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुण्ड संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, अप्रशस्त विहायोगति, प्रस चतुष्क, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातवाँ भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। उद्योतका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयश-कीर्ति इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अवन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातवा भाग अधिक स्थितिका बन्धक होता है। यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जाति और चतुरिन्द्रिय जातिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २५०. पञ्चन्द्रिय जातिकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियम से जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्याता भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है । तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति, दो आनुपूर्वी और उद्योत इनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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