SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२४ महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे तं तु । तिरिक्खगदि-मणुसगदि-दोआणु०-उज्जो० सिया० । तं तु० । जस० णि. वं. असंखेंजगु० । एवं पंचिंदियभंगो ओरालिय-तेजा०-क-समचदु०-ओरालि. अंगो०-वजरिस०-वएण०४-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिपंच-णिमिण त्ति । २५१. आहार० जह हि०बं. देवगदि-पंचिंदि०-वेउन्वि०तेजा-क०-समचदु०--वउव्वि अंगो०-वएण०४--देवाणु०-अगु०४--पसत्थ-तस०४-थिरादिपंच-- णिमि० णि• बं. संखेज्जगुणब्भहियं० । आहार०अंगो० मि. बं० । तं तु० । जस० णि० वं० णि असंखेंजगुणब्भहियं० । तित्थय सिया० । तं तु० । एवं आहारअंगो-तित्थयरं । २५२. रणग्गोद० जह हि०बं० पंचिंदि०-ओरालि०-तेजा-क०--ओरालि० कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। यशः. कीर्तिका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थिति बन्धक होता है। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रिय जातिके समान औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, औदारिक प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इनकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। २५१. आहारक शरीरकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, स्थिर आदि पाँच और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अजघन्य संख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। आहारक आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्धक होता है जो जघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य,एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिकतक स्थितिका बन्धक होता है। यशः कोर्तिका नियमसे बन्धक होता है जो नियमले अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक स्थितिका बन्धक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो जघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है और अजघन्य स्थितिका भी वन्धक होता है। यदि अजघन्य स्थितिका वन्धक होता है तो नियमसे जघन्यको अपेक्षा अजघन्य एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार आहारक आङ्गोपाङ्ग और तीर्थङ्कर प्रकृतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । २५२. न्यग्रोध परिमण्डल संस्थानकी जघन्य स्थितिका बन्धक जीव पश्चेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy