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________________ उक्कस्ससत्थाणबंधसरिणयासपरूवणा मणुसगदि-देवगदि-ओरालि०-वेउव्वि०-[ दो ]अंगो०-वजरि०-दोआणु-तित्थय. सिया० । तं तु । एवमेदे पंचिंदियभंगो।। १०३. थिर० उक्क हिदिवं. पंचिंदि०-तेजा-क-समचदु०-वएण०४-अगु०४पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदे-णिमि० णिय० संखेज्जदिभागू० । दोगदिदोसरीर-दोअंगो०-वज्जरि०-दोआणु०-अमुभ-अजस-तित्थय० सिया० संखेज्जदिभागू० । सुभग-जसगि० सिया० । तं तु० । एवं थिरभंगो सुभ-जस० । १०४. वेदग०-उवसमस. ओधिभंगो। वरि उवसम० तित्थय. उक्काहिदिवं० देवगदि-पंचिंदि०-वेविय-तेजा.-क-समचदु०-वेउवि अंगो०-वएण०४देवाणु०-अगु०४-पसत्था--तस०४-अथिर-असुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज-अजस०-- होता है । किन्तु वह उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका पसंख्यातवा भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । मनुष्यगति, देवगति, औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो आनुपूर्वी तथा तीर्थंकर प्रकृतिका स्यात् बन्धक होता है और स्यात् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय जातिके समान इन सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए। १०३. स्थिर प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण इनका नियमसे बन्धक होता है जो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवा भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। दो गति, दो शरीर, दो प्राङ्गोपाङ्ग, वज्रर्षभनाराच संहनन, दो अानुपूर्वी, अशुभ, अयश-कीर्ति और तीर्थङ्कर इनका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो नियमसे अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है। सुभग और यशःकीर्तिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धकहोता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार स्थिर प्रकृतिके समान शुभ और यश कीर्तिके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए। १०४. वेदक सम्यक्त्व और उपशम सम्यक्त्वमें अपनी सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकी अपेक्षा सन्निकर्ष अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि उपशम सम्यक्त्वमें तीर्थङ्कर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव देवगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्ण चतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु चतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, बस चतुष्क अस्थिर, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, अयश-कीर्ति और निर्माण इनका नियमसे वन्धक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001390
Book TitleMahabandho Part 3
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size13 MB
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